SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व यह अमूहदृष्टित्व एक ओर तो सदैव आस्तिक्यसे शक्ति ग्रहण करके सबलता प्राप्त करता है, और दूसरी ओर 'प्रभावना' नामके आठवें गुणको आधार प्रदान करता है । आस्तिक्यके अनुरूप अमूढ़-दृष्टित्व, और अमढ़-दृष्टिवके अनुरूप ही प्रभावना हमारे भीतर प्रतिष्ठित हो सकते है। इस प्रका उपजाने में कारणभूत ये चार भाव ही सम्यक्त्वके आठ गुणोंको शक्ति प्रदान करके निर्मलता और सम्पूर्णता प्रदान करते हैं। इसका यह अर्थ हुआ कि सम्यवत्व उत्पन्न हो जाने पर इन चारोंकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती, वरन् वह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है और समकितवान जीवके जीवन में इनका समावेश और महत्व निरन्तर बना रहता है । इन निशंकित आदि आठ गुणोंसे ही समकितका अस्तित्व है । जैसे शरीरके आठ अंग ही शरीरको पूर्णता प्रदान करते हैं, वैसे ही ये आठ गुण सम्यग्दृष्टि जीवका वैचारिक व्यक्तित्व बनाते हैं । निःशंकित और निःकांक्षितकी स्थिति दोनों पैरों जैसी है । इनके बिना व्यक्ति न टिक सकता है और न एक पग चल ही सकता है। निर्विचिकित्सा और अमूदृष्टित्व हमारे दोनों हाथोंकी तरह हैं, जो मलशुद्धिसे लेकर चन्दनतिलक तक सारी क्रियायें करते हुए भी शरीर की शुचिताको बनाये रखते हैं । स्थितिकरण अंग पृष्ठ भागपीठकी तरह है। शरीरमें मेरुदण्डकी तरह समकितमें यह अंग भी पूरे व्यक्तित्वको स्थिरता और आधार प्रदान करता है। उपग्रहन अंगकी स्थिति नितम्ब भागकी तरह है। जमकर बैठ जाने में अत्यन्त उपयोगी होकर भी यह अंग प्रच्छन्न रहकर ही शोभा पाता है। हमारा वक्ष वात्सल्यका प्रतीक है। वात्सल्यकी उत्पत्ति, स्थिति और विकास सब कुछ हृदयमें ही होता है । वह तर्कसे, ज्ञानसे या बुद्धिसे बहुत ज्यादा संचालित नहीं होता। शाब्दिक वात्सल्यके बजाय लोकमें भी हार्दिक भावनाएं या छातीसे लगाकर बत्सलता जताना ही सच्चे वात्सल्यका प्रतीक है। प्रभावनाका स्थान मस्तिष्कके समान निरर्थक है, उसी प्रकार मार्गप्रभावनाको आधार बनाए बिना, न समकित सच्चा समकित हो सकता है, न धर्म यथार्थ धर्म हो सकता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शनके अविनाभावी मे आठ गुण ही समकितवान जीवको एक अभूतपूर्व व्यक्तित्व प्रदान करते हैं। इनमें से कोई एक गुण भी यदि विकसित न हो पाये, तो वह अंग-हीन सम्यग्दर्शन, अनादि संसार परिपाटीका छेद करनेमें उसी प्रकार असमर्थ होता है जैसे कम अक्षरोंवाला मंत्र यांछित कार्यकी सिद्धिमें अकार्यकारी होता है । निःशंकित गुण हमारी मनोभूमिको मृदुता प्रदान करता है। निःकांक्षित और निविचिकित्सा उसमेसे राग द्वेषका उन्मूलन करते हैं, अमूढ़-दृष्टित्वसे मोहका परिहार होता है । शेष चार गुण हमारे व्यक्तित्वको शुचिता, संस्कार और आत्म-संयमकी ओर ले जाते हैं। तभी हमारा जीवन शल्य रहित हो जाता है, भय रहित हो जाता है। संक्लेश मुक्त हो जाता है। मिथ्या शल्य जानेसे भूतकालका अनादिसे लगा हुआ मल विसर्जित हो जाता है, माया शल्यके अभाव में वर्तमान जीवन प्रामाणिक और पवित्रता युक्त हो जाता है और निदान शल्य जानेसे भविष्यके अनुबन्ध तथा आसस्तियां टूटती हैं। इस प्रकार समकित की निधि प्राप्त होते ही जीवके भूत, भविष्य और वर्तमान तीनोंमें पवित्रता आ जाती है। सम्यग्दृष्टि जीवकी प्रवृत्ति 1 समकित उत्पादक भावों और गुणोंकी उपरोक्त चर्चासे, यह बात स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ही जीवको एक साथ अनेक ऐसी अनुपम निधियों प्राप्त हो जाती हैं, जिनके आधार पर उसकी बाह्य और अभ्यंतर, दोनों प्रकारकी प्रवृत्तियोंमें बड़े परिवर्तन प्रारम्भ हो जाते हैं। संयमरूप चारित्र भले ही अभी उसने धारण नहीं किया हो, परन्तु अब तककी सारी यद्वा तद्वा प्रवृत्तियों और चपलताओंको त्यागकर, - १६६ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211763
Book TitleMoksh Mahalki Pratham Sidhi Samkit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiraj Jain
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy