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________________ अव्रती सम्यग्दृष्टिका वैभव और उपलब्धियाँ गिनाते समय कई बार तो हम यह भी भूल जाते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव चारों ही गतियोंमें पाये जाते हैं, तब पशुमें अथवा नारकी जीवमें वह सारी महत्ता कैसे संगत बैठेगी, जिसे चतुर्थ गुणस्थान पर बिना विवक्षा विचारे, हम थोपते चले जा रहे हैं । इस दृष्टिसे भी प्रकृत विषय पर विचार किया जाना आवश्यक है । सम्यक्त्वके आठ अंग प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य -- ये चार भाव सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में कारण होते हैं । इन्हें हम समकित की जड़ भी कह सकते हैं । वास्तव में, इन्हीं चार भावोंके उत्तरोत्तर विकासका नाम ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनके जो आठ गुण या अंग, निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना कहे गए हैं, वे भी इन्हीं चार भावोंसे प्रगट और पुष्ट होते हैं । इनका परस्पर में ऐसा ही सम्बन्ध है । १——प्रशम' गुण हमारी कषायगत तीव्रताको हटाकर हमारे भीतर समता भाव उत्पन्न करता है । समताकी मृदु भूमिमें ही स्वके अस्तित्वका बोध होता है । अपने ही अस्तित्वके प्रति हमारी अनादिकालीन शंकाओं या भ्रान्त धारणाओंका निराकरण होकर हमारे भीतर निःशंकित नामका पहला गुण प्रगट होता है । यही गुण, आगे चलकर एक ओर तो उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रशम भावसे पोषण प्राप्त करता रहता है, और दूसरी ओर यह अपने प्रसादसे पाँचवें उपगूहन अगको पोषित करता रहता है । २ - 'संवेग भाव' संसार परिभ्रमण से भयभीत होकर उसकी परिपाटीको तोड़नेकी छटपटाहटका नाम है | संवेग आते ही समस्त सांसारिक उपलब्धियाँ और उपाधियाँ असुहावनी और कष्टकर लगने लगती हैं । उनके प्रति आकर्षण या उनकी प्राप्तिकी आकांक्षा हमारे भीतर शेष न रह जाय, सम्यक्त्वका यह निःकांक्षित नामका दूसरा गुण है । यह गुण आगे जाकर एक ओर तो निरंतर बढ़ते हुए प्रशम भाव से पोषित होता चलता है, दूसरी ओर यह स्थितिकरण नामके छठे गुणको पोषण प्रदान करता है । जितना दृढ़ संवेग भाव होगा, उतनी ही दृढ़ता हमारे नि:कांक्षित गुणमें होगी, और यह जितना दृढ़ होगा, उतना ही हम अपने आपको यश, ख्याति, लाभ पूजादि चाहसे बचाकर रख सकेंगे । इनसे बचे बिना 'स्व' के अथवा 'पर' के स्थितिकरणकी कल्पना भी नहींकी जा सकती । ३- 'अनुकम्पा' तृतीय भाव है जो मिथ्यात्व के नाशमें सहायक होता । अनन्तानन्त संसारी जीवोंके अनादिकालीन दुःख समुदायका विचार करके, उनकी पीड़ासे द्रवित होकर, सर्वके दुःख निवारणकी कामना, अनुकम्पा है । दया भावमें, पर दुःख कातरता जोड़ देने पर इस भावकी सही परिभाषा घटित होती है । अनुकम्पा प्रगट होते ही समस्त जीवों, और विशेषकर दुखियों पीड़ितोंमें, हमारे निर्वि चिकित्सा नामका तीसरा गुण प्रगट होता है । ग्लानि, घृणा, जुगुप्सा आदिका भाव हमारे मनसे निकल जाता है । यह गुण इधर तो निरन्तर अनुकम्पासे पोषण पाकर वृद्धिंगत होता है और उधर अपने प्रसादसे वात्सल्य नामके सातवें गुणको बढ़ाता और दृढ़ करता है । ४ - 'आस्तिक्य' चौथा सबसे महत्वपूर्ण भाव है । इसीकी दृढ़ताके सहारे कुदेव, कुश्रुत और कुगुरुकी अनादि मान्यताके हमारे अनुबन्ध खण्डित होते हैं, हमें 'अमूढ़-दृष्टित्व' नामका सम्यग्दर्शनका चौथा गुण प्राप्त होता है । स्व और परकी यथार्थ मान्यता के बिना यह आस्तिक्य गुण उत्पन्न हो ही नहीं सकता । आस्तिकी दृढ़ता बिना, मूढ़-दृष्टियाँ मिथ्याकल्पनाएँ कभी नष्ट नहीं हो सकतीं । हमारे भीतर आस्तिक्य की नींव जितनी गहरी होगी, हमारा अमूढदृष्टित्व भी उतना ही सबल और पुष्ट होगा । Jain Education International 1 १६५ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211763
Book TitleMoksh Mahalki Pratham Sidhi Samkit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiraj Jain
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size2 MB
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