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D डा० देव कोठारी
[ उपनिदेशक - साहित्यसंस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर]
मेवाड़ राज्य की रक्षा में जैनियों की भूमिका
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मेवाड़ की राजनीति में जैनों का योगदान अविस्मरणीय है। भामाशाह का विश्वविश्रुत समपण तथा अन्य अनेक जैन महामंत्रियों, वीरों और दानियों का बलिदान मेवाड़ की गौरवगाथा में वैसे ही जुड़े हैं- जैसे फूल में सौरभ ।
मेवाड़ में जैनधर्म के प्रादुर्भाव का प्रथम उल्लेख ईसा की पांचवीं शताब्दी पूर्व से मिलता है । भगवान महावीर के निर्वाण के ८४ वर्ष पश्चात् ही उत्कीर्ण बड़ली के शिलालेख में मेवाड़ प्रदेश की 'मज्झमिका' नगरी का सन्दर्भ है । मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र एवं अवन्ति के शासक सम्प्रति के समकालीन आचार्य आर्य सुहस्ती के द्वितीय शिष्य प्रियग्रन्थ ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में 'कल्पसूत्र स्थविरावली' के अनुसार जैन श्रमण संघ की 'मज्झमिआ ' शाखा की यहीं स्थापना की थी । मथुरा से प्राप्त प्रस्तर लेखों में भी 'मज्झमि आशाखा' के साधुओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । मौर्यकाल में जैन संस्कृति के सुप्रसिद्ध केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित यह मज्झमिका नगरी कालान्तर में विदेशी आक्रमणों से क्रमशः ध्वस्त होती गई, किन्तु जैनधर्म अपने अस्तित्व की रक्षा एवं प्रसार के प्रयास में निरन्तर संघर्षशील रहा, परिणामस्वरूप नागरिक से लेकर शासक वर्ग तक वह विकास और श्री वृद्धि की श्रेणियों को पार करता गया । नागदा, आहाड़, चित्तौड़गढ़, देलवाड़ा, कुंभलगढ़, जावर, धुलेव, राणकपुर, उदयपुर आदि स्थान जैन धर्म और संस्कृति के प्रसिद्ध प्रतीक बन गये । यहाँ का छोटा से छोटा गाँव भी तीर्थ सदृश पूजनीय बन गया तथा मनीषी जैन सन्तों तथा निस्पृही श्रावकों ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के द्वारा मेवाड़ को जैन धर्म, समाज एवं संस्कृति का अग्रणी केन्द्र प्रस्थापित कर दिया । विभिन्न स्थानों से प्राप्त पुरातात्त्विक एवं पुराभिलेखीय सामग्री इसका पुष्ट प्रमाण है । मेवाड़ के कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक विकास में जैनधर्म के अमूल्य और अतुल योगदान का तटस्थ सर्वेक्षण एवं विश्लेषणात्मक मूल्यांकन शोध का एक अलग विषय है, किन्तु जैनधर्मानुयायी श्रावकों के राजनीतिक योगदान को ही एकीकृत कर अगर लिपिबद्ध किया जाय तो मेवाड़ के इतिहास की अनेक विलुप्त श्रृंखलाएँ जुड़ सकती हैं ।
मेवाड़ राज्य के शासकों के सम्पर्क में जैनधर्म कब आया, इस बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है । विक्रम संवत् ७६ में जैनाचार्य देवगुप्तसूरि तथा विक्रम संवत् २१५ में पू० यज्ञदेवसूरि का इस क्षेत्र में विचरण करने का उल्लेख उपलब्ध होता है। तत्पश्चात् सिद्धसेनदिवाकर एवं आचार्य हरिभद्रसूरि के व्यापक प्रभाव के प्रमाण क्रमश:
द्रष्टव्य- - नाहर जैन लेखसंग्रह, भाग-१, पृष्ठ ६७, लेख संख्या ४०२ ।
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वर्तमान में चित्तौड़गढ से सात मील उत्तर में स्थित है।
३ (१) सेक्रीड बुक्स आव द ईस्ट, वा० २२, पृष्ठ २६३ । (२) समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि पृष्ठ ६
४ विजयमूर्ति जैन लेखसंग्रह, भाग-२, लेख संख्या ६६ । ५ (१) द्रष्टव्य - पतंजलि कृत महाभाष्य ३२ ॥
(२) मज्झमिका (पत्रिका) पृष्ठ २ ( प्रवेशांक)। ६ सोमानी वीरभूमि चितौड़गढ़, पृष्ठ १५२ ।
इसे अब 'नगरी' नाम से अभिहित किया जाता है ।
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