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________________ शान्तिलाल भारद्वाज 'राकेश' : मेवाड़ में रचित जैन-साहित्य : ८६१ सिद्धसेन दिवाकर तथा अन्य आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैन परम्परा में तर्क-विद्या के प्रणेता और जैन परम्परा के प्रथम संस्कृत कवि के रूप में सम्मानित हैं. नयचन्द्र के सम्बन्ध में स्वयंभू ने कहा है कि उसके काव्य में अमरचन्द्र का लालित्य और श्रीहर्ष की वक्रिमा-दोनों गुण हैं. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने संस्कृत के भाष्यकारों में श्री प्रभाकर गुप्त को महती प्रतिष्ठा दी है और दर्शन-व्याकरण और काव्य के आचार्य हेमचन्द्र का 'त्रिशष्ठिशलाकापुरुष चरित्र' विश्व-साहित्य का बेजोड़ काव्य माना गया है.' हरिभद्रसूरि के प्राकृत ग्रंथ 'धूर्ताख्यान' के सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की गई है कि यह ग्रन्थ समुच्चय भारतीय साहित्य में अपने ढंग की मौलिक ग्रंथपद्धति का एक उत्तम उदाहरण है.२ अपभ्रंश का गौरव-हिन्दी की जननी अपभ्रश भाषा के साहित्य में तो सर्वत्र जैन सन्तों का ही साहित्य मिलता है. स्वयंभू, धनपाल, जोइन्दु, मुनि कनकामर शालिभद्र, विजयचन्द्रसूरि, हरिभद्र सूरि, जिनदत्त सूरि, वर्द्धमान सूरि, शालिभद्र सूरि, देवसूरि, विनयचन्द्रसूरि, उद्योतनसूरि, सोमप्रभसूरि, जिनप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि' जैसे अनेक रचनाकारों ने अपभ्रंश भाषा को श्रेष्ठ साहित्य दिया है. जैन रचित अपभ्रश साहित्य के विभिन्न स्वरूपों में हमें हिन्दी और उसकी सहायक भाषाओं तथा अन्य कई भारतीय भाषाओं के जन्म और विकास की कहानी मिलती है. हिन्दी आज अपभ्रश की जितनी ऋणी है—जैन साहित्यकारों की भी उतनी ही ऋणी है. साहित्य की लगभग सभी समकालीन विद्याओं में जैन-साहित्य की रचना हुई हैं. वहाँ यशश्चन्द्र, वारिचन्द्र, मेधप्रभाचार्य रामचन्द्र , देवविजय, यशपाल, विजयपाल और हस्तिमल जैसे नाटककार; पादलिप्त, हरिभद्र, उद्योतनसूरि, जिनेश्वर, देवभद्र, राजशेखर और हेमहंस जैसे कथाकार; चन्द्रप्रभसूरि, हेमतुग, राजशेखर और जिनप्रभसूरि जैसे निबन्धकार एवं इतिहासकार ; ओडयदेव जैसे गद्यकाव्यकार; सोमदेव, हरिश्चन्द्र, अर्हद्दास जैसे चम्पूकार और वीर नन्दि, वादिराज, धनञ्जय, वाग्भट्ट, अभयदेव, और मुनिचन्द्र जैसे महाकाव्यकार बड़ी संख्या में एक साथ मिलते हैं जिन्होंने स्तर और परिमाण-दोनों दृष्टियों से सफल रचनाकारों में अपना स्थान बनाया है. जैन-साहित्य के आकर्षण अनेक हैं लेकिन प्रस्तुत निबन्ध की मर्यादा में उनकी विस्तृत चर्चा न अपेक्षित है और न समीचीन ही, इसलिए उचित यही होगा कि 'मेवाड़ में रचित जैन साहित्य' का यथा उपलब्ध विवरण प्रस्तुत किया जाय. जैनाचार्य और मेवाड़ जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर पहले आचार्य थे जिन्होंने चित्तौड़ में प्रवेश किया. जैन-ग्रन्थों के अनुसार वे यशस्वी भारतसम्राट विक्रमादित्य के प्रतिबोधक, प्रगाढ़ पण्डित और महान् दार्शनिक थे. प्राचार्य हरिभद्र और चैत्यवासी परम्परा-आठवीं या नवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य हरिभद्रसूरि का राजस्थान से, विशेषकर चित्तौड़ से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है. जैन संतों में यह एक ऐसे आचार्य थे जिन्होंने धर्म को मार्ग भटक जाने से बचाया. जैन सन्तों में उन दिनों चैत्यवासियों का बड़ा प्रभाव था. वे चैत्यों या मठों में रहते थे और धीरेधीरे अनेक आसक्तियों से बंध गये थे. मठों में रहना, देवद्रव्य का उपयोग, रंग-बिरंगे वस्त्र, स्त्रियों के आगे गाना, दो तीन बार भोजन, ताम्बूल व लवंग का सेवन तथा ज्यौनारों में शिष्ट आहार-उनमें मठाधीशों की विकृतियाँ पनपने लगी थी, वे मुहूर्त निकालते थे. निमित्त बतलाते थे, शृंगार करते थे, इत्र लगाते थे, क्रय-विक्रय करते थे और चेले बनाने के लिये बच्चों तक को खरीदते थे.४ १. जैन साहित्य-डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी. २. कथाकोष प्रकरण की भूमिका-मुनि जिनविजय (सिन्धी जैन, ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक ११) ३. जैन साहित्य और चित्तौड़-'अगस्चन्द नाटा. ४. जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी. * * * * * * * * * Jains... . . . . . . . . . . !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! www.jainelibrary.org !! . .
SR No.211753
Book TitleMevad me Rachit Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantilal Bharadwaj
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size2 MB
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