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________________ मेवाड़ के जैन वीर १३७ किलेदार भारमल कर्मावती की बाबर के साथ इस गुप्त संधि से अनभिज्ञ था । इसका रहस्योद्घाटन तब हुआ जब देवा ने भारमल को किला सौंप देने की बात कही। भारमल दिन व दिन कमजोर होते मेवाड़ राज्य को देख रहा था । वह इस सन्धि के पीछे छिपी बाबर की मंशा भी समझ रहा था कि यदि मेवाड़ राज्य के सीमा प्रान्त पर स्थित रणथम्भोर का किला एक बार बाबर के हाथ में आ गया तो यह उभरते हुए मुगल साम्राज्य के लिए मेवाड़ राज्य में प्रवेश का स्थायी द्वार बन जायेगा । इसलिये भारमल ने देवा को दृढ़तापूर्वक इन्कार करते हुए कहा कि 'मुझे राणा सांगा ने इस किले का किलेदार बनाया है और विक्रमादित्य एवं उदयसिंह का अभिभावक बनाया है । इन सबक सुरक्षा की जिम्मेदारी मुझ पर है। रानी सन्धि करने वाली कौन होती है ?' देवा के लाख प्रयत्न करने पर भी भारमल अपने निश्चय पर अडिग रहा । तब अन्तत: देवा को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा । बाबर द्वारा लिखित अपनी 'आत्म-कथा' 'बाबरनामा' में रानी कर्मावती के सन्धि प्रस्ताव का बाबर ने उल्लेख किया । किन्तु इस सन्धि के भंग होने या असफल रहने के सम्बन्ध में बाबर व बाबरनामा, दोनों ही मौन हैं। चूंकि इस सन्धि में बाबर की असफलता है तथा भारमल का देशभक्तिपूर्ण साहस है । HIG रतनसिंह, विक्रमादित्य व वनवीर के अल्प शासनकाल में उत्तराधिकारी के बुद्ध राजघराने के आपसी गृहकलह में जब रणथम्भोर मेवाड़ राज्य के हाथ से निकल गया तब उसके साथ भारमल की जागीरी भी जाती रही । इन तीनों अल्पकालीन शासकों के काल में भारमल चित्तौड़ में अपने तलहटी वाले मकान में आकर शान्तिपूर्वक रहने लगा । जब महाराणा उदयसिंह गद्दी पर बैठा तथा उसके हाथ में पुनः चित्तौड़ का दुर्ग आया तब उदयसिंह ने भारमल की देशभक्ति, त्याग और महत्त्वपूर्ण सेवाओं को देखते हुए भारमल को पुनः १ लाख की जागीरी का सम्मान, किले के पास वाली हवेली में निवास व प्रथम श्रेणी के सामन्त पद से समाहत किया । बाबर की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी हुमायूँ को भारत की सीमा से बाहर जाने को विवश कर देने वाले अफगान वीर शेरशाह ने चित्तौड़ दुर्ग को जीतने के लिए कूच किया और उसने अपनी सेना सहित चित्तौड़ के पास पड़ाव डाल दिया। मेवाड़ युद्ध करने की स्थिति में नहीं था और यदि युद्ध होता तो न केवल मेवाड़ की हार होती. अपितु मेवाड़ की बची-खुची शक्ति भी नष्ट हो जाती । ऐसे गहरे सकट में भारमल ने पुनः मेवाड़ का उद्धार किया । भारमल ने शेरशाह के सामने चित्तौड़ दुर्ग की चाबी रखते हुए कहा कि - "यदि आप दुर्ग पर अधिकार करना चाहते हैं तो सहर्ष कीजिये, इसके लिये किसी युद्ध या रक्तपात की जरूरत नहीं है । हमारा आपसे कोई विरोध नहीं है । हमारा विरोध तो उन तुर्क लोगों से है, जो विदेशी हैं और भारत को पददलित करना चाहते हैं । आप और हम तो भारतीय हैं । किला चाहे हमारे पास रहे या आपके पास इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता ।" भारमल के तर्क को सुनकर शेरशाह इतना सन्तुष्ट हुआ कि उसने प्रसन्नता से दुर्ग की चाबी वापस भारमल को लौटा दी तथा मेवाड़ से अपना मैत्रीभाव मानते हुए वह यहाँ से बिना युद्ध किये लौट गया । सन्दर्भ का यदि थोड़ा सा अन्तर स्वीकार कर लिया जाये तो यह सिकन्दर और पौरुष से कम महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रसंग नहीं है । 2 Jain Education International अलवर में अपने निवास तक भारमल तपागच्छ का अनुयायी था। मेवाड़ में आने पर भारमल ने लोकागच्छ स्वीकार कर लिया था । तत्कालीन जैन साधु व लोक कवि श्री हेमचन्द्र रत्नसूरि ने भामाशाह व ताराचन्द के कृतित्वव्यक्तित्व पर 'भामह बावनी' की रचना की है। जिसमें भारमल को धरती के इन्द्र के समान वैभवशाली व वृषभ के समान विशाल देहयष्टि का बलिष्ठ व धैर्यवान् पुरुष बतलाया गया है। For Private & Personal Use Only भामाशाह कावड़िया – भामाशाह कावड़िया वीर भारमल कावड़िया का पुत्र था। भामाशाह का जन्म १५४७ ई० में हुआ । यद्यपि आयु में भामाशाह प्रताप से ७ वर्ष छोटे थे तथापि बाल्यकाल से ही प्रताप के निकट सम्पर्क में रहते थे तथा अपने पिता उदयसिंह के शासन काल में प्रताप अपना अधिकांश समय चितौड़ दुर्ग पर रहकर भारमल कावड़िया के किले की तलहटी वाले मकान में भामाशाह के साथ बिताते थे और भामाशाह आखेट, शस्त्र संचालन आदि खेलों में प्रताप के साथ ही अभ्यास करते थे । www.jainelibrary.org.
SR No.211750
Book TitleMevad ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShambhusinh
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ceremon
File Size2 MB
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