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________________ १३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड आधिपत्य से भारत को स्वतन्त्र कराने की महत्वाकांक्षा से वह परिचित था। अत: वह समझता था कि मेवाड़ में निरन्तर बढ़ाई जा रही सैन्य संख्या और भारी युद्धों के व्यय में धन की सदैव अत्यधिक आवश्यकता रहेगी। इसलिए कर्माशाह ने दीवान के पद पर कार्य करते हुए भी अपने निजी धन की पूंजी से चित्तौड़ में अपना व्यवसाय स्थापित किया और वह न केवल देश में अपितु बंगाल की खाड़ी द्वारा चीन तक अपना निर्यात का व्यवसाय कर धन अजित करता । यही कारण है कि जब राणा सांगा ने गुजरात, मालवा और दिल्ली के निकट क्षेत्र के सूबेदारों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया तब और मेवाड़ के राजवंश में सबसे विशाल सेना रखी तब भी मेवाड़ राज्य में कभी धन की कमी नहीं आयी। गुजरात के शासक मुहम्मद शाह ने जब अपने पुत्र बहादुरशाह को गुजरात से निकाल दिया तब बहादुरशाह राणा सांगा के आश्रय में चित्तौड़ आया । सांगा ने उसे अपने पुत्रवत् आश्रय दिया । जब बहादुरशाह ने अपने पिता के विरुद्ध युद्ध करने की इच्छा जाहिर की तब कर्माशाह ने बहादुरशाह को एक लाख रुपये का सामान और खर्चे के लिये एक लाख रुपये नकद की सहायता की । बहादुरशाह जब गुजरात का शासक बना तब उसने चित्तौड़ में कर्माशाह को सन्देश भिजवाया कि वह अब अपने कर्ज का रुपया लौटाना चाहता है और कर्माशाह के किसी वचन को पूरा कर उनके उपकार का बदला चुकाना चाहता हैं।' कर्माशाह ने उत्तर भिजवाया कि- 'मेरे पास धन की कमी नहीं है इसलिए मैं अपना दिया हुआ धन वापस नहीं लेना चाहता हूँ। मैंने उसे ऋण मानकर नहीं दिया अपितु एक साहसी व्यक्ति को उसके न्याय के संघर्ष में सहयोग हेतु दिया। फिर भी मैं बहादुरशाह की इस भावना की प्रशंसा करता हूँ और दो बचन लेना चाहता हूँ । एक तो यह कि मुस्लिम शासकों ने पाटण में जितने जैन मन्दिर तोड़े हैं, उनका मैं जीर्णोद्धार करवाना चाहता हूँ। दूसरा यह कि गुजरात राज्य में आपके वंशज मुस्लिम शासक भविष्य में कभी किसी मन्दिर को नहीं तोड़ेंगे।' बहादुरशाह ने कर्माशाह के ये दोनों वचन सहर्ष स्वीकार कर लिये। कर्माशाह ने उस समय करोड़ों रुपया खर्च कर पाटण के (११००) ग्यारह सौ जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया और बहादुरशाह के वंशज गुजरात के मुस्लिम शासकों ने फिर कभी किसी मन्दिर को नहीं तोड़ा । ये मन्दिर आज भी विद्यमान हैं तथा जैन मतावलम्बियों का प्रमुख तीर्थ केन्द्र हैं । इनकी भव्यता आज भी कर्माशाह के युग के उत्कृष्ट शिल्प से दर्शकों का मन मोह लेती है। भारमल कावड़िया-अलवर निवासी भारमल कावड़िया अत्यन्त धनाढ्य व्यापारी था और राणा सांगा के विशेष आग्रह से अपनी सम्पूर्ण. धन-सम्पदा सहित चित्तौड़ आकर मेवाड़ राज्य की सेवा में समर्पित हुआ था। सांगा ने भारमल को सामरिक महत्त्व के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भोर का किलेदार नियुक्त किया। सांगा ने भारमल को रणथम्भोर के निकट एक लाख रुपये की जागीरी दी, अपना प्रथम श्रेणी का सामन्त बनाया एवं अपने महल के पास हवेली बनवाकर देकर उसे विशेष रूप से सम्मानित किया। अपनी मृत्यु के पूर्व सांगा ने भारमल को अपने दो छोटे पुत्रों, विक्रमादित्य एवं उदर्यासह का अभिभावक भी नियुक्त किया। सांगा की मृत्यु के बाद उनकी विधवा रानी कर्मावती को यह आशंका हुई कि कहीं नया राणा रतनसिंह उसके दोनों अवयस्क पुत्रों को मरवा न दे। इसलिए कर्मावती ने बाबर से सन्धि करने का विचार किया और अपने सम्बन्धी बिजौलिया के सामन्त अशोक को बाबर के पास यह सन्धि-प्रस्ताव लेकर भेजा कि-'यदि बाबर हमें रणथम्भोर के बराबर ७० लाख की जागीर दे देगा तो हम रणथम्भोर का किला और उसकी इतनी ही बड़ी जागीर बाबर को दे देंगे।' बाबर ने इस अप्रत्याशित सन्धि-प्रस्ताव का हृदय से स्वागत किया और वह रणथम्भोर के बदले शाहाबाद की ७ लाख की जागीर देने को तैयार हो गया तथा उसने अशोक को कहा कि-'यदि रानी कर्मावती सन्धि के अनुसार मेरी बात को मानती रहेगी तो मैं भविष्य में विक्रमादित्य या उदयसिंह को, जिसे रानी चाहेगी, चित्तौड़ का राणा बना दूंगा।' साथ ही बाबर ने रणथम्भोर दुर्ग को खाली करवाकर अपने अधिकार में लेने के लिए अपने विश्वस्त सेवक हमूसी के पुत्र देवा को कुछ सेना रणथम्भोर रवाना कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211750
Book TitleMevad ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShambhusinh
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ceremon
File Size2 MB
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