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डा० प्रेम सुमन जैन,
एम० ए०, आचार्य, पी-एच० डी० [विश्रुत भाषाशास्त्री, लेखक तथा सहायक प्रोफेसर प्राकृत संस्कृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय]
मेवाड़ का प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत साहित्य
मेवाड़ न केवल शौर्य एवं देशभक्ति के लिए ही प्रसिद्ध है, किन्तु साहित्य, संस्कृति एवं कला की समृद्धि के लिए भी उसका गौरव भारत विद्युत रहा है। प्राचीन आर्य भाषा प्राकृत अपभ्रंश एवं संस्कृत साहित्य के विकास में जैन मनीषियों के योगदान का एक रेखांकन प्रस्तुत है यहाँ ।
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ जितना शौर्य और देशभक्ति के लिए प्रसिद्ध है, उतना ही साहित्य और कला की समृद्धि के लिए भी । इस भू-भाग में प्राचीन समय से विभिन्न भाषाओं के मूर्धन्य साहित्यकार साहित्य सर्जना करते रहे हैं। उसमें जैन धर्म के अनुयायी साहित्यकारों का पर्याप्त योगदान है। प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषा में कई उत्कृष्ट ग्रन्थ इन कवियों द्वारा लिखे गये हैं । इन भाषाओं के कुछ प्रमुख कवियों की उन कतिपय रचनाओं का मूल्यांकन यहाँ प्रस्तुत है, जिनका प्रणयन मेवाड़ प्रदेश में हुआ है तथा जिनके रचनाकारों का मेवाड़ से सम्बन्ध रहा है ।
प्राकृत साहित्य
राजस्थान का सबसे प्राचीन साहित्यकार मेवाड़ में ही हुआ है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ५-६ वीं शताब्दी के बहुत विद्वान थे। 'दिवाकर' की पदवी इन्हें चित्तौड़ में ही प्राप्त हुई थी। अतः इनकी साहित्य साधना का केन्द्र प्रायः मेवाड़ प्रदेश ही रहा होगा । प्राकृत भाषा में लिखा हुआ इनका 'सन्मति तर्क' नामक ग्रन्थ अब तक राजस्थान की प्रारम्भिक रचना मानी जाती है। न्याय और दर्शन का यह अनूठा ग्रन्थ है। इसमें प्राकृत की कुल १६६ गाथाएँ हैं, जिनमें जैन न्याय के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ के प्रथम काण्ड में नय के भेदों और अनेकान्त की मर्यादा का वर्णन है । द्वितीय काण्ड में दर्शन ज्ञान की मीमांसा की गई है। तृतीय काण्ड में उत्पाद, व्यय, धौव्य तथा अनेकान्त की दृष्टि से ज्ञयतत्त्व का विवेचन है। जैन दर्शन के इस प्राचीन ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं ।
आठवीं शताब्दी में मेवाड़ में प्राकृत के कई मूर्धन्य साहित्यकार हुए हैं। उनमें आचार्य हरिभद्र, एलाचार्य, वीरसेन आदि प्रमुख हैं । इन आचार्यों ने स्वयं प्राकृत साहित्य की समृद्धि की है तथा ऐसे अनेक शिष्यों को भी तैयार किया है जो प्राकृत के प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं ।
आचार्य हरिभद्र का जन्म चित्तौड़ में हुआ था । ये जन्म से ब्राह्मण थे, तथा राजा जितारि के पुरोहित थे । २ जैन दीक्षा ग्रहण करने के बाद हरिभद्रसूरि ने जैन वाङ् मय की अपूर्व सेवा की है। प्राचीन आगमों पर टीकाएँ एवं स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ मी इन्होंने लिखे हैं । दर्शन व साहित्य विषय पर आपकी विभिन्न रचनाओं में प्राकृत के ये ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हैं- समराइच्चकहा, घूर्ताख्यान, उपदेशपद, धम्मसंगहणी, योगशतक, संवोहपगरण आदि ।
१. संघवी, सुखलाल, 'सन्मतिप्रकरण', प्रस्तावना, १६६३ ।
२. संघवी, 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' १६६३ ।
३. शास्त्री, नेमिचन्द्र, 'हरिभद्र के प्राकृत कथा - साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन', द्रष्टव्य |
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