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________________ पाश्चात्य दृष्टिकोण मूल्य जैविक मूल्य १. आर्थिक मूल्य २. शारीरिक मूल्य ३. मनोरंजनात्मक मूल्य सामाजिक मूल्य ४. संगठनात्मक मूल्य ५. चारित्रिक मूल्य आध्यात्मिक मूल्य ६. कलात्मक ७. बौद्धिक ८. धार्मिक संदर्भ १. २. ३. ४. ५. भारतीय दृष्टिकोण पुरुषार्थ अर्थ पुरुषार्थ कामपुरुषार्थ "" धर्मपुरुषार्थ निश्चयधर्म Jain Education International आनन्द (संकल्प) चित् (ज्ञान) अनन्त सुख एवं शक्ति अनन्तज्ञान सत् (भाव) अनन्तदर्शन इस प्रकार अपनी मूल्य-विवेचना में प्राच्य और पाश्चात्य विचारक अन्त में एक ही निष्कर्ष पर आ जाते है और वह निष्कर्ष यह है कि आध्यात्मिक मूल्य या आत्मपूर्णता ही सर्वोच्च मूल्य है एवं वही नैतिक जीवन का साध्य है। जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ६. ७. ८. जैन दृष्टिकोण अर्थ काम " यद्यपि भारतीय दर्शन में सापेक्ष दृष्टि से मूल्य सम्बन्धी सभी विचार स्वीकार कर लिये गये हैं, फिर भी उसकी दृष्टि में आत्मपूर्णता, वीतरागावस्था या समभाव की उपलब्धि ही उसका एकमात्र परम मूल्य है, किन्तु उसके परममूल्य होने का अर्थ एक सापेक्षिक क्रम व्यवस्था में सर्वोच्च होना है। किसी मूल्य की सर्वोच्चता भी अन्यमूल्य सापेक्ष ही होती है, निरपेक्ष नहीं। अतः मूल्य, मूल्य-विश्व और मूल्यबोध सभी सापेक्ष है। 284. मरणसमाधि, ६०३. उत्तराध्ययन, १३ /१६. प्राकृत सूक्तिसरोज, ११/११. प्राकृत सूक्तिसरोज, ११/७. व्यवहारधर्म Contemporary Ethical Thoories, Chapter-17pp. 774 १९२ देखिए-कल्पसूत्र, सं० देवेन्द्रमुनि, तारकगुरु अन्यमाला उदयपुर १९७५. योगशास्त्र १/५२. दशवेकालिकनियुक्ति, २६२-२६४. दीघनिकाय, ३/८/२. ९. १०. वही, ३/८/४, ११. वही, ३/८/४. १२. वही, ३/३/४. १३. सुत्तनिपात, २६ / २९. १४. मज्झिमनिकाय, २/३२/४. १५. उदान, जात्यन्धवर्ग ८. १६. मज्झिमनिकाय, १/२२/४. १७. गीता, १८/३४. १८. वही, १७/२१. १९. वही, १८/६६. २०. वही, १६ / १०, १२, १५. २१. वही, ७/ ११. २२. वही, ३/१३. २३. मनुस्मृति, ४/१७६. २४. महाभारत, अनुशासनपर्व ३/१८-१९. २५. कौटिलीय अर्थशास्त्र १/१७. २६. महाभारत शान्तिपर्व १६७/१२-१३. २७. कौटिलीय अर्थशास्त्र १/७. २८. महाभारत शान्तिपर्व, १६७/२९. २९. वही, १६७/३५. ३०. वही, १६७/४०. ३१. वही, १६७/८. ३२. यही १६७/४६. ३३. बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ? ३४. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् । ३५. निशीयभाष्य ४१५९. ३६. फण्डामेण्टल आफ एथिक्स, पृ० १७०-१७१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.211738
Book TitleMulya Darshan aur Purusharth Chatushtaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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