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अहवा हेउ चउव्विहे पण्णते तं जहाँ पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्म -स्थानांग ३३८ ४. मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम-तत्वार्थ १/ १ ५. तत्त्वार्थ भाष्य १ / १५
६. भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग ४ पृ० १९० - १९१
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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मूल्य दर्शन का उद्भव एवं विकास
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एक नवीन दार्शनिक प्रस्थान के रूप में 'मूल्य दर्शन' का विकास लौत्से, ब्रेन्टानो, एरनफेल्स, माइनांग, हार्टमन, अरबन, अवरेट मैक्स शिलर आदि विचारकों की रचनाओं के माध्यम से १९वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होता है, तथापि श्रेय एवं प्रेय के विवेक के रूप में परम सुख की खोज के रूप में एवं पुरुषार्थ की विवेचना के रूप में मूल्य-बोध और मूल्य-मीमांसा के मूलभूत प्रश्नों की समीक्षा एवं तत्सम्बन्धी चिन्तन के बीज पूर्व एवं पश्चिम के प्राचीन दार्शनिक चिन्तन में भी उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः मूल्य-बोध मानवीय प्रज्ञा के विकास के साथ ही प्रारम्भ होता है। अतः वह उतना ही प्राचीन है, जितना मानवीय प्रज्ञा का विकास। मूल्य-विषयक विचार-विमर्श की यह धारा जहाँ भारत में 'श्रेय' एवं 'मोक्ष' को परम मूल्य मान कर आध्यात्मिकता की दिशा में गतिशील होती रही, वहीं पश्चिम में 'शुभ' एवं 'कल्याण' पर अधिक बल देकर ऐहिक, सामाजिक एवं बुद्धिवादी बनी रही। फिर भी अर्थ, काम और धर्म के त्रिवर्ग को स्वीकार कर न तो भारतीय विचारकों ने ऐहिक और सामाजिक जीवन के मूल्यों की उपेक्षा की है और न सत्य, शिव एवं सुन्दर के परम मूल्यों को स्वीकार कर पश्चिम के विचारकों ने मूल्यों की आध्यात्मिक अवधारणा की उपेक्षा की है।
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मूल्य दर्शन और पुरुषार्थ चतुष्टय
मूल्य का स्वरूप
मूल्य क्या है ? इस प्रश्न के अभी तक अनेक उत्तर दिये गये हैं- सुखवादी विचारपरम्परा के अनुसार, जो मनुष्य की किसी इच्छा की तृप्ति करता है अथवा जो सुखकर, रुचिकर एवं प्रिय है, वही मूल्य है। विकासवादियों के अनुसार जो जीवनरक्षक एवं संवर्द्धक है, वही मूल्य बुद्धिवादी कहते हैं कि मूल्य वह है जिसे मानवीय प्रज्ञा निरपेक्ष रूप से वरेण्य मानती है और जो एक विवेकवान् प्राणी के रूप में मनुष्यजीवन का स्वतः साध्य है। अन्ततः पूर्णतावादी आत्मोपलब्धि को ही मूल्य मानते हैं और मूल्य के सम्बन्ध में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः मूल्य के सन्दर्भ में ये सभी दृष्टिकोण किसी सीमा तक ऐकान्तिकता एवं अवान्तर कल्पना के दोष (Naturalistic Fallacy)
मीमांसा कोष, पृ० १६३८
तत्रोहो नाम प्रकृतावन्यथा दृषष्य विकृतावन्यथा भावः । १०. न्यायसूत्र पर वात्सयान भाष्य १/१/१, पृ० ५३ ११. न्यायसूत्र पर विश्वनाथ वृत्ति १/१/४०
१२. न्यायसूत्र पर वात्सायन भाष्य, पृ० ३२०-२१
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से ग्रसित हैं। वास्तव में मूल्य एक अनैकान्तिक, व्यापक एवं बहुआयामी प्रत्यय है, वह एक व्यवस्था है, एक संस्थान है, उसमें भौतिक और आध्यात्मिक, श्रेय और प्रेय, वांछित और वांछनीय, उच्च और निम्न, वासना और विवेक सभी समन्वित हैं। वे यथार्थ और आदर्श की खाई के लिए एक पुल का काम करते हैं। अतः उन्हें किसी ऐकान्तिक एवं निरपेक्ष दृष्टिकोण के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। मूल्य एक नहीं, अनेक हैं और मूल्य-दृष्टियाँ भी अनेक हैं। अत: प्रत्येक मूल्य किसी दृष्टि विशेष के प्रकाश में ही आलोकित होता है। वस्तुतः मूल्यों की और मूल्य - दृष्टियों की इस अनेकविधता और बहु-आयामी प्रकृति को समझे बिना मूल्यों का सम्यक् मूल्यांकन भी सम्भव नहीं हो सकता है।
मूल्यबोध की सापेक्षता
मूल्य-बोध में मानवीय चेतना के विविध पहलू एक-दूसरे से संयोजित होते हैं। मूल्यांकन करने वाली चेतना भी बहु-आयामी है, उसमें ज्ञान, भाव और संकल्प तीनों ही उपस्थित रहते हैं। विद्वानों ने इस बात को सम्यक् प्रकार से न समझ कर ही मूल्यों के स्वरूप को समझने में भूल की है। यहाँ हमें दो बातों को ठीक प्रकार से समझ लेना होगा - एक तो यह कि सभी मूल्यों का मूल्यांकन चेतना के किसी एक ही पक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है, दूसरे यह कि मानवीय चेतना के सभी पक्ष एक-दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष होकर कार्य नहीं करते हैं। यदि हम इन बातों की उपेक्षा करेंगे तो हमारा मूल्य-बोध अपूर्ण एवं एकांगी होगा। फिर भी मूल्य-दर्शन के इतिहास में ऐसी उपेक्षा की जाती रही है। एरेनफेल्स ने मूल्य को इच्छा (डिज़ायर का विषय माना तो माइनांग ने उसे भावना (फीलिंग) का विषय बताया। पैरी ने उसे रुचि (इंट्रेस्ट) का विषय मानकर मूल्य-बोध में इच्छा और भावना का संयोग माना है। सारले ने उसे अनुमोदन (एप्रीसियेशन) का विषय मान कर उसमें ज्ञान और भावना का संयोग माना है फिर भी ये सभी विचारक किसी सीमा तक एकांगिकता के दोष से नहीं बच पाये हैं।
मूल्य-बोध न तो कुर्सी और मेज़ के ज्ञान के समान तटस्थ ज्ञान है और न प्रेयसी के प्रति प्रेम की तरह मात्र भावावेश ही वह मात्र
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