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मूलाचार में वर्णित आचार-नियम : श्वेताम्बर आगम साहित्य के परिप्रेक्ष्य में
-डॉ. अरुणप्रताप सिंह
जैनधर्म में आचार पक्ष पर सर्वाधिक बल दिया गया है। इसके दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र, जिन्हें मोक्ष-मार्ग कहा गया है, की त्रिपुटी में सम्यक्-चारित्र का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्यक-चारित्र ही आचार है। ज्ञान एवं श्रद्धा जब तक व्यवहार जगत् की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, अपूर्ण माने गये हैं।
मूलाचार जिसमें मुख्यतः आचार-नियम वर्णित हैं, दिगम्बर परम्परा का सर्वमान्य ग्रन्थ माना जाता है, यद्यपि यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण है कि यह मूलरूप से दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीय परम्परा का रहा होगा। यापनीय परम्परा एक ओर दिगम्बरों के समान मुनि की नग्नता पर बल देती थीं, तो दूसरी ओर श्वेताम्बरों के अनुरूप आगमों को एवं स्त्री-मुक्ति की अवधारणा को स्वीकार करती थीं। मूलाचार के कर्ता को भी स्त्री-मुक्ति की अवधारणा और साथ ही श्वेताम्बर आगम साहित्य में समान रूप से विश्वास था। यापनीय श्वेताम्बर आगम साहित्य से परिचित थे। अतः श्वेताम्बर आगमों का उनके साहित्य में प्रतिबिम्बित होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत लेख में यह बताने का प्रयास किया गया है कि मूलाचार में श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की सामग्री किस प्रकार समाहित है। साथ ही आचार-नियम के सन्दर्भ में श्वेताम्बर अवधारणाओं (concepts) से उनकी साम्यता एवं विषमता का भी अवलोकन किया गया है।
मूलाचार 12 अधिकारों ( अध्यायों) में विभक्त है।
इसका प्रथम अधिकार मूलगुणाधिकार है। मूलगुणों का पालन करना प्रत्येक श्रमण का प्रथम कर्तव्य है। श्रमणजीवन का तात्पर्य मूलतः पापकर्मों से विरत रहना है -- इस सन्दर्भ में इन मूलगुणों का जो कि व्रतों से सम्बन्धित है, विशेष महत्त्व है। मूलाचार में श्रमण के 28 मूलगुण बताये गये हैं --5 महाव्रत, 5 समितियों का सम्यक-पालन, 5 इन्द्रियों का संयम, षडावश्यक, केशलुञ्चन, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन और स्थिति भोजन।
मूलाचार के समान ही श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी मूलगुणों की चर्चा है। यहाँ इनकी संख्या 27 है। समवायांग में जो सूची प्राप्त है, वह निम्न है -- पाँच महाव्रत, पाँच इंद्रियों का संयम, चार कषायों का त्याग, क्षमा, विरागता, भावसत्य -- करणसत्य एवं योगसत्य, मन-वचन एवं काया का निरोध, ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र से सम्पन्नता, कष्ट सहिष्णुता, मरणान्त कष्ट का सहन करना।
हम देखते हैं कि दोनों परम्पराओं में मूलगुणों का भाव "संयम" ही है। यहाँ संख्या भेद का कोई महत्त्व नहीं है -- अन्तर केवल उनकी बाहय एवं आन्तरिक शुद्धता को लेकर है। जहाँ मूलाचार आचरण के बाह्य नियमों पर बल देता है, वहीं श्वेताम्बर ग्रन्थ आचरण की आन्तरिक विशुद्धता पर। मूलगुणों के सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अन्तर नग्नता को लेकर है। श्वेताम्बर परम्परा को, जो वस्त्र को मोक्ष-मार्ग में बाधा नहीं मानती, अपने ग्रन्थों में नग्नता को मूलगुणों के अन्तर्गत रखने का कोई औचित्य ही नहीं था। मूलाचार उस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ निर्वस्त्रता मुनि के आचरण का एक प्रमुख पक्ष था परन्तु यहाँ द्रष्टव्य है कि मूलाचारकर्ता इस सम्बन्ध में अधिक कठोर रुख नहीं अपनाता। मूलाचार अपरिग्रह महाव्रत के पालन में "सक्कच्चागो" (शक्त्या त्यागः ) अर्थात् अपनी शक्ति के अनुसार नियम के पालन का उपदेश देता है। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में नग्नता को अधिक महत्ता प्रदान की गई और यह कहा गया कि तीर्थंकर भी यदि वह वस्त्ररहित नहीं है, मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। स्पष्टतः मूलाचार निर्वस्त्रता को उतनी अधिक महत्ता प्रदान नहीं करता जितनी कि दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थ करते हैं।
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