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मिथिला और जैनमत ३२१
अथक प्रयास का फल था कि
निकट सम्बन्धी तथा संरक्षक (चेतक) की यत्र-तत्र ससम्मान चर्चा की है । यह उन्हीं के वैशाली उस समय जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र थी जिसके फलस्वरूप बौद्ध संन्यासी उसे हेय दृष्टि से देखते थे । जैन सूत्रों से यह भी ज्ञात होता कि विदेहों और लिच्छवियों की भाँति मल्ल भी महावीर के अनन्य भक्त थे । 'कल्पसूत्र' के अनुसार 'परम जिन' के निर्वाण के अवसर पर लिच्छवियों की भाँति मल्लों ने भी उपवास व्रत रखा और सर्वत्र दीप जलाये । 'अन्तगडद्साओ' में भी इस बात की विशद् चर्चा की गयी है कि बाइसवें तीर्थंकर अरिट्ठेमि अथवा अरिष्टनेमि (विदेह राजा) के बःरवइ-आगमन पर उग्रों, मोगों, क्षत्रियों तथा लिच्छवियों के साथ मल्ल भी उनका स्वागत करने गये थे । इसी प्रकार काशी तथा कोसल गणराज्यों में भी जैनधर्म की लोकप्रियता थी और बिम्बसार, नन्द, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्प्रति, खारवेल आदि के समान अन्य कई शासक इस धर्म से काफी सम्बन्धित थे ।
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गुप्तकाल में जैनधर्म के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना घटी। इसी युग में जैनियों के धार्मिक एवं अन्य साहित्य का संग्रह और सम्पादन हुआ था इससे यह स्पष्ट है कि जैनी करीब-करीब समस्त भारत में इस समय तक फैल चुके थे । साथ ही, छठी शताब्दी और उसके बाद के अभिलेखों में जैन सम्प्रदाओं को काफी चर्चा मिलती है । ह्वेनसांग ने भी अपने विवरण में लिखा है कि जैनधर्म भारत में तो फैल ही चुका था, उसके बाहर भी उसका प्रभाव धीरे-धीरे फैल रहा था । लेकिन तेरहवीं चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते हम देखते हैं कि उत्तर बिहार (मिथिला) और उसके आस-पास के क्षेत्र में जैनधमं और बौद्धधर्म का काफी ह्रास हो चुका था । तेरहवीं सदी के स्वनामधन्य तिब्बती बौद्ध यात्री धर्मस्वामी के विवरण में कहीं भी बौद्धों और जैनों का उल्लेख नहीं मिलता । उसने तिरहुत (मिथिला) को "बौद्ध विहीन राज्य" कहा है ।"
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हैं । स्थापत्य कला को कृतियाँ पर्याप्त संख्या में क्षेत्र की जैन कला का
साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त पूरे उत्तरी भारत में जैन कला और स्थापत्य कला के पर्याप्त अवशेष मिले जैनियों की जो देन है, उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती । यद्यपि बिहार में जैन कलामिली हैं, फिर भी उत्तर बिहार (मिथिलांचल) में उनकी संख्या बहुत ही कम है, इसलिये इस सम्बद्ध इतिहास प्रस्तुत करना बड़ा ही कठिन है । सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि वैशाली क्षेत्र में भी जैन कला-कृतियों के अवशेष उपलब्ध नहीं हैं स्मिथ महोदय के अनुसार १८९२ ई० में बनिया ग्राम से ५०० गज पश्चिम जमीन में लगभग ८ फीट नीचे गड़ी हुई तीर्थकरों की दो मूर्तियाँ — एक बैठो और दूसरी खड़ीप्राप्त हुई थीं । किन्तु ब्लाक महोदय ने इसको प्रामाणिकता पर सन्देह प्रकट किया है3८ : गैरिक महोदय ने ३२ भी उन मूर्तियों की चर्चा करते हुए कहा है कि जब वह उस गाँव में चहुँचे, तो इतनी रात हो चुकी थी कि अंधेरे में उन मूर्तियों का सही-सही अध्ययन और मूल्यांकन सम्भव नहीं था ।
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किन्तु साहित्यिक साक्ष्य इससे भिन्न हैं । जैन साहित्य में वैशाली स्थित अनेक जैन कलाकृतियों के प्रसंग मिलते हैं । जैन ग्रन्थ उवासगड - दसाओं से ज्ञात होता है कि जैन ज्ञात्रिकों ने अपने कोलाग स्थित क्षेत्र में एक जैनमन्दिर बनवाया था जिसे 'चइय' कहा गया है । इसका अर्थ है 'मन्दिर' अथवा 'पवित्र स्थान' जहाँ पर उद्यान अथवा पार्क (उज्जआन', 'वनसण्ड' या 'वन- खण्ड), मन्दिर तथा सेवक- गृह हो । वहीं कुण्डपुर में महावीर यदा-कदा अपने शिष्यों के साथ आकर विश्राम करते थे । ३४
बौद्ध परम्पराओं की भाँति ही जैन परम्पराओं में भी तीर्थंकरों (जिन) की समाधि पर स्तूप निर्माण की प्रथा थी । इसी कोटि का एक स्तूप जिन मुनि सुव्रत की समाधि पर वैशाली में बना था और दूसरा मथुरा में सुपार्श्वनाथ का 134 जैनधर्म में स्तूप-पूजा की प्रधानता थी । वैशाली स्थित उक्त स्तूप का उल्लेख करते हुए " आवश्यकचूर्ण" में 'पारिणामिकी बुद्धि' की व्याख्या के सन्दर्भ में 'शुभ' की कथा दी है जिससे यह स्पष्ट है कि 'नियुक्ति' के लेखक
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