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खण्ड
३१८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रंथ
इसी प्रकार बुद्ध के जीवन काल में भी लिच्छवि, मल्ल तथा काशी- कोसल के राज्य ही महावीर तथा अन्य निर्ग्रन्थ अनुयायियों के कार्य क्षेत्र थे । बौद्ध ग्रन्थों से भी यह ज्ञात होता है कि राजगृह, नालन्दा, वैशाली तथा पावापुरी और सावत्थी (श्रावस्ती) भगवान् महावीर तथा उनके अनुयायियों के समस्त धार्मिक कार्यों के क्षेत्र थे । यही कारण है कि वैशाली में महावीर के बहुत से लिच्छवि और विदेह समर्थक थे। उनके कुछ अनुयायी समाज के काफी उच्च वर्ग के थे । 'विनयपिटक' के अनुसार, लिच्छवि सेनापति 'सिंह' पहले महावीर के अनुयायी थे, बाद में बौद्ध हो गये । पाँच सौ लिच्छवियों की सभा में सच्चक नाम के एक निगण्ठ (निर्ग्रन्थ) ने बुद्ध को दार्शनिक सिद्धान्तों को चर्चा करते समय चुनौती दी थी । बौद्ध ग्रन्थों में प्राप्त अनेक दृष्टान्तों से पता चलता है कि बुद्ध के समय में वैशाली और विदेह के नागरिकों पर महावीर का कितना अधिक प्रभाव था । जैनियों का मत कि विदेह अथवा मिथिला भो जैन आर्य देशों का ही एक अभिन्न अंग थी क्योंकि यहीं वित्थयरों, गवकवट्ठियों, बलदेवों और वासुदेवों का जन्म हुआ था, यहीं सिद्धि मिली थी और उनके उपदेशों के फलस्वरूप इन क्षेत्रों के अनेक नागरिकों ने संन्यास लेकर ज्ञान-प्राप्ति की थी। इस प्रकार भारत के धार्मिक क्षेत्र में वैशाली की ख्याति बहुत पहले ही फैल चुकी थी और महावीर द्वारा दीक्षित वहाँ के धर्मोपदेशक अपनी सदाचारित एवं आनुशासनिक कट्टरता के फलस्वरूप तत्कालीन समाज में दूर-दूर तक ख्याति प्राप्त कर चुके थे । वैशाली की इसी ख्याति के फलस्वरूप 'गुरू' की खोज में सिद्धार्थ ( बोधिसत्व) वहाँ पहुँचे थे और वहाँ के ख्यातिलब्ध साधक आलार - कलाम से दीक्षित हुए | आलार-कलाम के सम्बन्ध में ऐसी जनश्रुति है कि "वह अपनी साधना में इतने आगे बढ़ चुके थे कि मार्ग पर बैठे रहने पर यदि ५०० बैलगाड़ियाँ उनके बगल से गुजर जातीं, तो भी उनकी घरघराहट को वह नहीं सुन पाते। " श्रीमती रिज डेविड्स का तो ऐसा मत है कि वैशाली में ही बुद्ध को दो 'गुरू' मिले - आलार तथा उद्दक । इनकी शिक्षा से प्रभावित होकर उन्होंने अपना धार्मिक जीवन एक जैन की भाँति प्रारम्भ किया ।" एक जैनी के रूप में अत्यन्त कठोर अनुशासनित जीवन व्यतीत करने के फलस्वरूप उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने जैन-मार्ग त्यागकर मध्यम मार्ग अपनाया और शीघ्र ही उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई । यही मार्ग बाद में चलकर बौद्धमत की आधारशिला बना । फलतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बौद्धधमं के उत्थान और विकास के बहुत पूर्व से ही वंशाली और विदेह (मिथिला) जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र के रूप में काफी ख्यात हो चुके थे ।
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महावीर और बुद्ध के समय उत्तरी भारत की सामाजिक और धार्मिक नीति एक-सी थी । जाति व्यवस्था, जन्म-सुविधाओं का दुरुपयोग तथा धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मणों का एकाधिकार - इनके फलस्वरूप जिस नयो संस्था (पुरोहितवाद) का जन्म हुआ था, वह समाज के अंग-अंग को अपने खूंखार चंगुल में जकड़ चुकी थी । उससे मुक्त होने के लिए सामान्यजन छटपटा रहे थे। ठीक, उसी समय जनक, विदेह और याज्ञवल्क्य - जैसे उपनिषद-युगीन क्रान्तिकारी ऋषियों और दार्शनिकों ने इस 'पुरोहितवाद' पर भयंकर आघात किया, उसकी घोर भत्सना की । फलस्वरूप ब्राह्मणधर्म के क्षेत्र में एक नयो क्रान्ति आयो, यज्ञ तथा धर्म के नाम पर सदियों से फैली कुरीतियों को भयंकर आघात पहुँचा ।
ठीक इसी समय महाबीर भी भारत के ब्राह्मण ऋषियों और दार्शनिकों द्वारा चलाये गये इस धार्मिक आन्दोलन के साथ पार्श्वनाथ के धर्म का प्रचारप्रसार करने का महाबीर को दिया कि मनुष्य को शान्ति और सहायता के लिए कहीं और अन्दर ही ढूँढ़ सकता है । उनके उपदेश इतने प्रभावोत्पादक थे कि ब्राह्मणों के एक वर्ग ने भी महान् शिक्षक के रूप में उनका सम्मान किया, उन्हें मान्यता दी । वास्तविकता तो यह है कि बुद्धिजीवी ब्राह्मणों ने समय-समय पर जैनियों को भी वैसी ही सहायता की, जिस प्रकार उन्होंने बोद्धों की सहायता की थी और विद्या के क्षेत्र में उनकी प्रेरणा से जैनियों की प्रतिष्ठा को काफी
धार्मिक क्षितिज पर अवतरित हुए फलस्वरूप, कुछ साधारण परिवर्तनों के विलक्षण संयोग प्राप्त हुआ उन्होंने इस बात पर जोर देखने की आवश्यकता नहीं हैं, वह उसका निदान अपने
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