________________ 41. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ 168 42. वही पृष्ठ 163 43. वीरवाणी वर्ष 18 अंक 13 पृष्ठ 21-22 44. वही पृष्ठ 22 45. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी पृष्ठ 118 46 , भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ 125-26 47. संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी 48. अनेकांत वर्ष 18 किरण 6 पृष्ठ 245 49. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ 125 50. वही पृष्ठ 125 51. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ 548 52. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ 127 53. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ पृष्ठ 551 54. भार. सं. में जैन धर्म का यो. पृष्ठ 185 55. वीरवाणी वर्ष 18 अंक 13 पृष्ठ 185 56. वीरवाणी वर्ष 18 अंक 13 पृष्ठ 22 57. संस्कृत साहित्य का इतिहास गैरोला पृष्ठ 345 58. वीरवाणी पृष्ठ 22 (जैन साहित्य : श्वेताम्बर, दिगम्बर,....पृष्ठ 102 का शेष) जैन साहित्य में गद्य एवं चम्पू साहित्य का भण्डार भी बहुत भरा परकता अथवा व्यक्तित्व की सरसता का संचार हुवा जिससे ये रचपूरा है। ऐसे ग्रन्थों में प्राचीनतम वासुदेव हिन्दी है जो स्वलम्बकों नाएं शुद्ध कलात्मक साहित्य की ओर उन्मुक्त हो गई / दिगम्बर एवं में पूर्ण हुई है। इसे दो लेखकों ने पूर्ण किया है। पहले खण्ड में 29 श्वेताम्बर सम्प्रदायों का प्रभाव शुद्ध धार्मिक साहित्य में बहुत लम्बक हैं जो लगभग 11 हजार श्लोक प्रमाण का है तथा इसके कर्ता स्पष्ट है तथा इनकी मान्यताओं को ध्यान में रखकर निर्धान्त रूप संघदास गणिवाचक हैं। दूसरे खण्ड में 71 लम्बक हैं और 17 हजार से यह कह सकते हैं कि यह साहित्य दिगम्बर सम्प्रदाय का है तथा श्लोक प्रमाण का है, इसके कर्ता धर्मसेन गगि हैं / इस परम्परा में उससे इतर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का / कला और सौन्दर्य जैन साहित्य समरादित्य कथा, कुवलयमाला रेण चडराय, चरिथम कालकाचारि में यह विभाजन उतना स्पष्ट नहीं रह गया है क्योंकि इनका उपयोग की कथा जिनदत्ताख्यान रेणासोहरिकहा, जम्बूसामीचरित्र, आदि जैन मुनियों तक सीमित नहीं रह गया था अपितु यह गृहस्थ जीवन साहित्यिका दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं। इन स्वतंत्र लम्बी से जुड़ गया था। गृहस्थों में सम्प्रदायों की रूढ़ियों के पालन की कथाओं के अतिरिक्त कथाकोष बनाने की प्रवृत्ति का विकास भी जैन प्रवृत्तिनहीं दिखाई पड़ती वे तो सामान्य धर्म को ग्रहण कर संतुष्ट होते साहित्य में हो गया था / कथा रत्नकोष-विजयचन्द्र केवली, हैं यही कारण है कि जैन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में साम्प्रविवेकमंजरी, उपदेशकन्दली, कथा महोदधि, अभिमान देशना तथा दायिक भेद को उजागर न कर उसे प्रचछन्न ही रहने दिया है जिसका दश श्रावकचरित महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। प्रभाव यह पड़ा है कि ये रचनाएं केवल सम्प्रदाय की सीमा को ही उपर्युक्त सर्वेक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन नहीं तोड़ सकी अपितु देशकार की सीमा को तोड़कर सार्वभौम एवं साहित्य में विरक्त मुनियों के आश्रमों में पलता रहा अतः उसमें सार्वकालिक भी बन गई हैं / इस साहित्य से हिन्दी साहित्य ने साहित्यिक तत्वों का समावेश अत्यल्प ही हो सका / धीरे-धीरे प्रेरणा प्राप्त की हैं वह कोई भी साहित्य उससे प्रेरणा ले सकता है त्रिषष्टिशलाका पुरुषों की धारणा के दृढ़ होने के साथ चरितकाव्य जो नैतिक मर्यादाओं की रक्षा करते हुए मानव के चितरंजन में जैसी प्रवृत्तियों का समावेश इस साहित्य में हुआ जिसके परिणाम प्रवृत्त हो / वस्तुतः जैन साहित्य एक ऐसी निधि है जो जोवन्त स्वरूप शुद्ध रूप से धार्मिक समझे जाने वाले साहित्य में भी व्यक्ति है जिसे आधुनिक युग में प्रेरणा का स्रोत बनाया जा सकता है। 0 - (जैन साहित्य में लोककथा के तत्व....पृष्ठ 104 का शेष) हैं कि भारतीय लोक कथाओं के वैज्ञानिक अध्ययन में जिन कथानक आंकी गई है, वहीं जैन कथाओं का उद्देश्य निश्चित ही धर्म प्रचार रूढ़ियो की उपलब्धि हुई है, उनमें से अधिकतम कथानक रूढियां ही रहा है। परन्तु जैन कथाओं की निर्मिति में लोक कथाओं की जैन कथा साहित्य में थी जो अपने मूल रूप से उपलब्ध होती है। आधार भूमि मूल रूप से कार्य करती रही है और यही कारण है कई स्थलों पर घटनाचक्र में भी समानता है और कई प्रसंगों का कि उनमें लोक तत्वों का समावेश प्रचुर मात्रा में हुआ है। उनका चित्रण भी यथावत् हुआ है / इन कथानक रूढियों से ही हम मूल ढांचा और उनके अंग-प्रत्यंगों की संरचना में भी भारतीय लोक कथाओं के देश, काल और परिस्थितियों का भी अध्ययन कर सकते हैं / कथाओं की अभूतपूर्व देन रही है। इसी का परिणाम है कि जैन साहित्य में उपलब्ध कथा गाथाएं जैन और जनेतर समाज में आज समग्र तथ्यों और आधारों की पृष्ठभूमि में हम इस निष्कर्ष भी अपना अस्तित्व प्रस्थापित किये हए हैं / पर पहुंचते हैं कि लोककथाओं की महत्ता जहाँ लोकरंजन हेतु वि.नि. सं. 2503 111 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org