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मधु अग्रवाल
जोखा भेजते हैं । डॉ० शास्त्री ने इस वर्ग का १६६० ई० का गोधा विज्ञप्ति पत्र प्रकाशित किया है । १७वीं शती से ही इन पर लेखन के साथ-साथ चित्रों को भी स्थान दिया जाने लगा । जिनकी परम्परा २०वीं शती के आरम्भिक दो-तीन दशकों तक रही । ये पत्र साहित्य, कला, इतिहास, सामाजिक स्थिति तथा स्थानीय भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहे हैं । सामान्यतः इन पन्नों पर पूर्ण कलश, अष्ट मांगलिक प्रतीक, तीर्थङ्करों की माताओं द्वारा देखे जाने वाले चौदह मंगल स्वप्न ( महासन ) तथा तीर्थङ्करों के कायचित्र के अतिरिक्त जिस नगर से विज्ञप्ति पत्र भेजा जाता है वहाँ के मुख्य स्थानों, जैन, अजैन मंदिरों, भवनों, मार्गों, बाजारों, वाहन, राजमहल, देवालय, जलाशय तथा जीवन के चित्र बने होते हैं । इसके बाद
महाराज, अन्य शिष्य, श्रावकों व मुनियों सहित नगर के प्रवेश द्वार के समीप पड़ाव में दिखाये जाते हैं। चित्रों के अतिरिक्त जहाँ से विज्ञप्ति पत्र भेजा जाता है तथा जिस स्थान को भेजा जाता है दोनों का विवरण, निमन्त्रण करने वाले नगर के साधुओं व श्रावकों आदि की वन्दना तथा अपने यहाँ पधारने की विनती लिपिबद्ध की जाती है । ये पत्र विद्वान् मुनियों की काव्य प्रतिभा एवं विद्वत्ता के प्रतीक भी हैं । इनके निर्माण में समय व धन लगता था । इस प्रकार के विज्ञप्ति पत्रों के निर्माण की परम्परा केवल श्वेताम्बर जैन समाज व कला की देन है ।
इन पत्रों को प्रकाशित करने का श्रेय सर्वप्रथम डॉ० हीरानन्द शास्त्री को है । उन्होंने १७७९ ई० में निर्मित सिरोही के १७९७ एवं १८३५ ई० में निर्मित जोधपुर के तथा १७९५ ई० में चित्रित बड़ौदा के विज्ञप्ति पत्रों को प्रकाशित किया । तत्पश्चात् डॉ० यू० पी० शाह ने बड़ौदा म्यूजियम बुलेटिन में "देसूरी विज्ञप्ति पत्र", भँवरलाल नाहटा ने राजस्थान भारती पत्रिका में बीकानेर के विज्ञप्ति पत्र एवं अगरचन्द नाहटा ने राजस्थान में मरु भारती पत्रिका में किशनगढ़ के विज्ञप्ति पत्र को प्रकाशित किया ।
गुजरात के अलावा राजस्थान चित्र शैली में इन पत्रों के चित्रण की परम्परा मुख्य तौर पर मारवाड़, बीकानेर एवं किशनगढ़ में पायी गई है। मारवाड़ चित्रशैली ही बीकानेर एवं किशनगढ़ चित्र शैली की जन्मदात्री रही है । इन पत्रों की परम्परा मुगल दरबार में भी रही है । अब तक का ज्ञात पहला चित्रित विज्ञप्तिपत्र जहांगीर के दरबार के मुगल चित्रकार शालीवाहन ने चित्रित किया । अकबर के बाद जहाँगीर मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु हिन्दुओं की धार्मिक भावना के प्रति अकबर की समन्वय तथा सहिष्णुता की नीति के अर्न्तगत जीवहत्या के निरोध के पक्ष में जहाँगीर नहीं था । फिर भी समकालीन मुनि जिनविजय सूरि के शिष्य विवेकहर्ष तथा उदयहर्ष के नेतृत्व में सम्राट के दरबारी राजा रामदास के साथ एक शिष्ट मण्डल १६१० ई० में जहाँगीर के दरबार में आगरा पहुँचा तथा पर्युषण पर्व के दिनों में जीव हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए विशेष आग्रह कर शान्ति आदेश का फरमान प्राप्त करने में सफल हो गया । उसी अवसर पर आगरा के जैन समाज की ओर से उक्त पत्र लिखा गया ।
निमन्त्रण पत्र होने के कारण ये समृद्ध नहीं होते । चूँकि इन पत्रों का
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कल्पसूत्र एवं कालकाचार्य कथा की प्रतियों की भांति उद्देश्य बिल्कुल भिन्न था। फलतः राजदरबार में
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