________________ माण्डू के जावड़ शाह 63 'कम 104 मन्दिर निःस्सन्देह विद्यमान थे और उनमें से प्रत्येक में उसने एक-एक प्रतिमा की स्थापना की थी (सुमतिसम्भव, 8 / 14) / स्फुरन्त्यत्र देवालयास्तुशृगाः शतं ते चतुभिः समं चित्रचंगाः / कसत्कोरणीभिर्लसत्तोरणश्रीधरः सिन्धुरा एव घण्टाघटाभिः / / यह विवरण विबुधविमलशिष्य से मेल खाता है / अभिनव देवभवन देवाला, शत उपरि च्यारइ चउसाला / कणय, रजत, पीतलमय कारीय, बिब प्रतिष्ठा जग साधारीश / / 75 // इससे अनुमान किया जा सकता है कि जावड़ के समय में जैन संस्कृति किस भव्यता तथा गौरव को प्राप्त कर चुकी थी। हम यह जानने को उत्सुक हैं कि श्रद्धालु कवियों द्वारा मुखरस्वर में प्रशंसित इस गौरव का अब क्या शिलालेखीय प्रामाण्य-भाग्यवश कुछ सलेख मूर्तियाँ उस सर्वव्यापी विध्वंस से बच गयी हैं, जिसने 'आनन्दनगर' माण्ड को बियाबान बना दिया है, जिसमें आज मुसलमानों की भयोत्पादक कबरें ही स्थित हैं। पवित्र जैन लोग समय रहते उन मूल्यवान बिम्बों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर ले गये थे तथा माण्ड से दूर मन्दिरों में स्थापित कर दिया गया था जहां अब भी उनकी पूजा होती है। ___ जावड़ द्वारा प्रतिष्ठापित 104 बिम्बों तथा मूर्तिपट्टों में से, अतीत के जिनों के तीन बिम्ब--अनन्तवीर्य, स्वयम्प्रभ, तथा पद्मनाभ; वर्तमान के तीर्थकरों की दो मूर्तियाँ–अभिनन्दन तथा नेमिनाथ, विहरमाण जिनों की एक प्रतिमाविशालनाथ तथा तीनों पंचतीथियों--कुन्थु, शान्ति तथा पार्श्व, कुल मिलाकर ये नौ बिम्ब अभी तक सुरक्षित हैं / कुछ स्पष्टत: भ्रष्ट पाठों को शुद्ध करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि उन सब में स्थान-नाम, मण्डप, सुमतिसम्भव (7 / 8) में निर्दिष्ट प्रतिष्ठा-तिथि-माघशुक्लात्रयोदशी, संवत् 1547, प्रतिष्ठाता श्रीमालवंशीय जावड़ का नाम, बहुधा उसकी पत्नियों के नाम, पत्नी सहित उसके पुत्र हीरा, उसके दत्तक सम्बन्धी लाला, हापराज के सिवाय पत्नियों सहित उसके समस्त पूर्वजों तथा राजमल्ल के अग्रज मेधा तथा वहिन शानी का समुचित उल्लेख हुआ है। ये सब किसी-न-किसी माहित्य स्रोत से भी ज्ञात हैं / शिलालेख साहित्यिक स्रोतों से, तथा आपस में, इस बात पर भी सहमत हैं कि जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा तपागच्छीय आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टधर आचार्य सुमतिसाधुसूरि ने की थी तथा इन 104 बिम्बों को एक-साथ स्थापित किया गया था (केवल एक स्रोत में ऐसा वर्णन नहीं है)। इस प्रकार जिस गणितीय नाप-जोख से साहित्यिक स्रोतों की उक्तियों तथा अंकों की पुष्टि शिलालेखों के प्रामाण्य से हई है, उससे बहु निन्दित जैन-साहित्य की ऐतिहासिक उपयोगिता का पक्ष-पोषण होता है। शोधक के लिये उस स्थिति में भी इस पर विश्वास करना न्यायोचित होगा, जब इसके समर्थन में कोई शिलालेख सूत्र प्राप्त न हो / हाँ, इससे पूर्व यह आवश्यक है कि ग्रन्थों को भाषावैज्ञानिक सत्यता से समझा जाए तथा सत्य-केवल सत्य को ग्रहण करने का निष्पक्ष प्रयास किया जाए। अन्यथा अर्द्ध-इतिहास का निर्माण हो जाता है, जैसा प्रस्तुत प्रबन्ध के विषय -जावड़-के बारे में हुआ है, जिसे समस्त प्रमाणों के विपरीत, वस्तुतः उनके अभाव में, माण्ड को मन्दिरों से अलंकृत करने, कल्पसूत्र की स्वर्णाक्षरी प्रति लिखवाने, प्रस्तर-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाने तथा खरतरगच्छ से सम्बन्धित होने का श्रेय पूर्ण निष्ठा से दिया गया है। आशा है, यह संक्षिप्त अध्ययन जैन सांस्कृतिक इतिहास के एक अध्याय का सूक्ष्म किन्तु तथ्यपूर्ण चित्र प्रस्तुत 00 माना जा सकता है क्योंकि जैन धर्म अपने सतत विहारशील, उपदेशदाता तथा बहुमानित साधुओं के कारण कभी भी भौगोलिक परिसीमाओं में बन्दी नहीं रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org