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बद्रीप्रसाद पंचोली एम० ए० (हिन्दी, संस्कृत ) साहित्यरत्न महावीर द्वारा प्रचारित आध्यात्मिक
गणराज्य और उसकी परम्परा
स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित गणतंत्र को आधुनिक संसार ने सबसे अधिक विकसित तथा जनकल्याणकारी व्यवस्था घोषित किया है. इस प्रकार की व्यवस्था का परीक्षण प्राचीन भारत में हो चुका है. वर्द्धमान महावीर और भगवान् बुद्ध के समय भारत में अनेक गणराज्य थे जिनके विषय में जैन और बौद्ध साहित्य से पर्याप्त सूचना मिलती है. अवदानशतक में गणाधीन व राजाधीनराज्यों का उल्लेख मिलता है. आचारांगसूत्र में भी राजारहित गणशासित राज्यों का उल्लेख मिलता है. इसी काल की अन्य रचना पाणिनीय अष्टाध्यायी भी गणशासन के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचना देती है. महाभारत में गणराज्यों को नष्ट करने वाले पारस्परिक फूट आदि दोषों का बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है. सारे भारतीय साहित्य में प्राप्त इसी तरह के उल्लेखों का अध्ययन करने से गणराज्यों की एक सुदृढ़ व विकसित परम्परा का पता चलता है जिसको महावीर स्वामी व महात्मा बुद्ध की महत्त्वपूर्ण देन है.
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आर्य जाति के प्राचीनतम वैदिक ग्रन्थों से गणजीवन के विकास के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है. ऋग्वेद में गण, गणपति आदि ही नहीं, जनराज्ञ शब्द भी प्रयुक्त हुआ है. सांमनस्य सूक्त में स्वतंत्र सहजीवन के विकास की र संकेत किया गया है जिसे विश्वव्यवस्था का आधार बनाया जा सकता है. स्वराज्य सूक्त से प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विषय में व्यापक जानकारी प्राप्त की जा सकती है. इस सूक्त के ऋषि राहुगण गोतम हैं. ऋषिवाची शब्द सदैव ही वैदिकमंत्रों के अर्थज्ञान की कुंजी होता है. राहुगण गोतम नाम भी इसी तरह इस सूक्त के अर्थ पर प्रकाश डालता है. रह (त्याग करना) धातु से 'र' शब्द निष्पन्न है जिसका अर्थ है त्यागी, दानी, आत्मत्यादियों में श्रेष्ठ गिने जाने वाले व्यक्तियों का गण या समूह (राहुगण ) ही स्वराज्य का निर्माण कर सकता है. यही नहीं, स्वराज्य के निर्माता गौतमवेदों में श्रेष्ठ भी होते हैं.
यजुर्वेद में न केवल राष्ट्र के जागरूक व आदर्श नागरिक बनने की भावना के ही दर्शन होते हैं, वरन् प्रजातंत्र को शत्रुनाशक भी कहा गया है
१. केचिद्देशा गणाधीनाः केचिद्राजाधीनाः - अवदानशतक २/१०३.
२. आचारांग सूत्र १।३।१६०.
३. महाभारत शान्ति पर्व- राजधर्मप्रकरण.
४. ऋग्वेद १८७४, ३/३५ ६, ५/६१।१३, ७/५८१, २.२३/१ आदि.
५. ऋग्वेद २ २३१, १०/११२६.
६. ऋग्वेद ११५३१.
७. ऋग्वेद १०/६१.
८. ऋग्वेद ११८०.
६. वयं राष्ट्र जागृयामः पुरोहिताः – यजुर्वेद 8|२३.
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