________________ कारण है कि जैन धर्म में बाह्य आडम्बरों और बाह्य विधि-विधानों का कभी स्वागत नहीं हुआ / महावीर का विश्वास सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों के एकत्व पर है / यदि वस्तुस्वरूप की समुचित समझ और जो कुछ हमने समझा है उस पर समुचित श्रद्धा हममें नहीं है तो हमारा आचरण एक मुखौटा मात्र हैं। अकेला ज्ञान मुखौटा है तो अकेला आचरण भी मुखौटा है, और मुखौटा सदैव दःख का कारण बनता है। आज का सबसे बड़ा दु.ख ही यह है कि हर वक्त हमें एक मुखौटा ओढ़ना है / जो हम हैं नहीं हमें प्रशित होना है / हर वक्त एक तनाव में रहना है कि कहीं हम असली रूप में न दीख जाएं। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की त्रयी के बिना मुखौटों से छुटकारा पाना संभव नहीं है / ___ सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से युक्त व्यक्ति को महावीर कोई निर्देश नहीं देना चाहते। उनकी दृष्टि में वह तो स्वयं उनके समकक्ष है / उसे वे क्या बता सकते हैं? वह अपना पथ स्वयं बना चुका है। वह मोक्ष के मार्ग पर है। व्यक्ति सत्ता पर जितना अटूट विश्वास महावीर का है उतना शायद ही किसी महापुरुष का रहा हो / महावीर भाग्यवादी नहीं हैं / वे यह तो मानते हैं कि वस्तु अपने परिणामी स्वभाव के अनुसार स्वतः परिवर्तित होती है। किन्तु इस प्रक्रिया में वे वस्तु के निजी प्रयत्नों को निष्क्रिय नहीं मानते / वह तो अपने लिए स्वयं उपादान है उसकी लगाम स्वयं उसके हाथ में है। बन्धन और मोक्ष कहीं बाहर नहीं हैं / वे हमारे अपने भीतर हैं। हम जिसे भी चुनना चाहें चुन सकते हैं। बन्धन से मुक्त होना चाहें तो वह भी सर्वथा हमारे अपने हाथ की बात है। (बन्धप्प मोक्खो तुज्झत्थेव-आचारांग५/२/१५०) / महावीर के अनुसार वस्तु या व्यक्ति अपने उत्थान पतन के लिए किसी ईश्वर पर तो निर्भर है ही नहीं, वह चाहे तो अपनी कर्म निर्भरता भी मिटा सकता है / कर्म फलीभूत होते हैं / लेकिन यदि आत्मा जागृत है तो वे बिना फल दिए ही झर जाएंगे। इस प्रकार 'करम गति टाले नहीं टली' की अनिवार्यता से भी मनुष्य मुक्त हो सकता है। आत्मा जब चाहे तब अवनति से उन्नति या मुक्ति की दशा में सक्रिय हो सकती है / दिशा परिवर्तन में समय नहीं लगता। जैन सन्तों ने बड़े मार्मिक ढंग से महावीर की बात को समझाया है कि यदि हम दस मील तक गलत दिशा में चले जा रहे हैं तो सही दिशा के लिए हमें फिर दस मील नहीं चलना है। हमें सिर्फ पलटना भर है। हम पलटे नहीं कि सही दिशा मिल गई। किसी कमरे में दस साल से अंधेरा है। उसे प्रकाशित करने के लिए दस साल तक प्रकाश नहीं करना है / हमें दिया भर जलाना है / दिया जलते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा। हम दिये को जलाएं तो? बड़ी से बड़ी यात्रा एक कदम से ही आरंभ होती है। हम एक कदम रखें तो? इसमें हमारा अपना हित है / जैन धर्म का हित है या नहीं, इसकी हमें ज्यादा चिन्ता नहीं होनी चाहिए। महावीर के उपदेश एक संपूर्ण रचना-एक सांगोपांग निर्मिति हैं। जिसमें बहुत वैज्ञानिक ढंग से एक के बाद एक ईंट रखी गई है / हम कहीं से भी एक ईंट अलग नहीं कर सकते, हम कहीं भी एक ईंट और नहीं जोड़ सकते / उनके उपदेशों में से किसी एक वाक्य या उपदेश को लेकर उसे ही सब कुछ मान लेना उनके साथ न्याय करना नहीं है। वस्तु स्वरूप की सही पहचान से उत्पन्न होने वाली महावीर की मूल अनेकान्त दृष्टि इस प्रकार के एकान्त आचरण की छूट हमें नहीं देती। ___ विज्ञान की तेज गति का साथ न दे पाने के कारण आज की दुनिया में धीरे-धीरे बहुत से आचार और विचार सरणियाँ अप्रासंगिक हो गई हैं। लेकिन महावीर के उपदेशों की प्रासंगिकता निरन्तर बढ़ती गई है क्योंकि उनके उपदेशों में धर्म और विज्ञान मिलकर एक हो गए हैं / पच्चीस सौ वर्ष पूर्व जिस वैज्ञानिक दृष्टि से उन्होंने अपनी बात कही थी उसे आत्मसात् करने के लिए विज्ञान के प्रयत्न अभी जारी हैं / दुनिया में विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि का ज्यों-ज्यों विकास होता जाएगा त्यों-त्यों महावीर के उपदेशों को प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी। आज के संदर्भ बहुत जटिल हो गए हैं। बहुत सी बातों और कार्यों में परोक्षता आ गई है। दर असल पिछले कुछ वर्षों से अर्थ शास्त्र और भूगोल बहुत बदल गए हैं इसलिए सभी क्षेत्रों में प्रायः सभी प्रक्रियाएँ अनिवार्य रूप से बदली हैं / लेकिन इतना सब होने पर भी मनुष्य में कोई मौलिक अन्तर नहीं आया है / वह अब भी पहले की तरह ही राग द्वेष का पुतला है-अहंकारी, स्वार्थी और दूसरे के लिए सुई की नोंक के बराबर भी भूमि देने वाला भी पर नहीं ही' पर दृष्टि रखने वाला / इसलिए महावीर के उपदेश अब भी प्रासंगिक हैं / महावीर तो एक दृष्टि प्रदान करते हैं। वह दृष्टि है कि हमें दूसरे के लिए भी हाशिया छोड़ना चाहिए। हमारी ओर से यही आन्तरिक यत्न होना चाहिए कि दूसरे के लिए हाशिया छोड़ने की बात हमारी स्वानुभूति का विषय बन जाए / हम अनुभव करें कि हमारे अतिरिक्त भी पदार्थ सत्ताएं हैं-करोड़, सौ करोड़ नहीं, अनन्त और अनन्तधर्मी हैं. विराट, इतनी विराट कि उन्हें संपूर्णता में देख पाना असंभव है / यह स्वानुभूति, यह दृष्टि जिसके पास है वह अपने आप सत्य, अहिंसा, अचोर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य के रास्ते पर चलेगा / क्षमा, मद्ता, सरलता, पवित्रता, अकिंचनता आदि उसके सहज गुण बन जाएंगे / ये सब उस पर आरोपित नहीं होंगे। उसके विचार और उसकी स्वानुभूति से सहज ही उदभूत हो उठेग। वह भीतर और बाहर एक हो जाएगाविभक्त व्यक्तित्व का अभिशाप उसे नहीं झेलना होगा। ___आगामी वर्षों में बदलाव की गति और भी तेज होगी। सुविधाओं की वृद्धि के बावजूद सुख छोटा हो जाएगा। अधिक असत्य, अधिक हिंसा, अधिक चोरी, अधिक एकान्त दृष्टि, अधिक परिग्रह, अहंकार और असंयम, भय और उन्माद, अप्रत्यक्ष गुलामियाँ और विषमताएं कुछ यह तस्वीर होगी कदाचित् भविष्य की / छोटी-छोटी बातों पर उलझाव, सूचनाओं की भीड़ के होने पर भी समझ या बोध की कमी, असहिष्णुता, हड़बड़ी यह सब बढ़ जाएगा। क्या तब भी महावीर के उपदेशों की प्रासंगिता होगी? महावीर जो इस सबसे भिन्न और विपरीत जीवन जीते रहे क्या कल अप्रासंगिक नहीं हो जायेंगे। समय का अन्तराल एक चुनौती है लेकिन गहरे में सोचें तो पाएंगे कि महावीर की प्रासंगिकता कल भी घटेगी नहीं, बढ़ेगी ही। आज की अपेक्षा वे हमें कल अधिक याद आएंगे क्योंकि आज की अपेक्षा कल हमें उनकी अधिक आवश्यकता होगी 12 राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org