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________________ जैन धर्म के सदाचार में सद्विचार परम "महावीर के उपदेश एक उस विजयी आत्मा के आवश्यक है। महावीर ने पर्याय की, द्रव्य की पुद्गल विजय गान के समान हैं जिसने इसी संसार में छुटकारा की जो व्याख्या की है तथा जीव-अजीव, जीव तथा स्वतंत्रता तथा मुक्ति प्राप्त कर ली है--उनके आदेश पदार्थ की जिस मिलीजुली सत्ता का विवेचन किया है, हर एक के लिये अनिवार्य नहीं हैं। जो बिना उनको स्वीउसी को दूसरे शब्दों में तपस्वी अरविन्द घोष ने भी कार किये भी अनुभव से ज्ञान प्राप्त किये बिना ही उस स्वीकार किया है। मार्ग पर चलने लगते हैं, वे भी अपनी आत्मा की एक स्वरिता नष्ट होने से और उसके गन्दला होने के भय जैन धर्म की प्राचीनता के बारे में अब कोई विवाद से वच जाते हैं।" भी नहीं रहा। जैकोबी के अनुसार पार्श्व ऐतिहासिक डा. फैलिक्स वाल्वो लिखते हैं :-- सत्य हैं / लेखक कीथ के अनुसार पार्श्व का जन्म ईसापूर्व 740 में हुआ था। जैन महापुराण (उत्तर __ "बिना किसी शंका या सन्देह के, निश्चय पूर्वक पुराण, पर्व 74, पृष्ठ 462) के अनुसार पाश्वे महावीर महावीर अपने ही उदाहरण से यह दिखला देते हैं कि के पूर्व 23वें तीर्थकर थे / पार्श्व के शिष्य श्री कुमार मानव के मस्तिष्क को किस प्रकार संयम में लाया जा ने महावीर के पिता को जैन धर्म की दीक्षा दी थी / सकता है और उस पर ऐसा अनुशासन हो सकता है डा. बाथम ने पार्श्व द्वारा जैन धर्म के प्रचार का वर्णन कि एक ही जीवन में उच्चतम बौद्धिक तथा आध्यात्मिक किया है। डा. ग्लसेनेप ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि सीमा पर पहुंच जाय।" बौद्ध धर्म के बहुत पहले से जैन धर्म भारत में प्रचलित था। उत्तर पुराण (74/2) के अनुसार इनके वाल्य काल में ही वर्धमान का दर्शन कर उनके तेज को देखकर महावीर ने पुरानी श्रमण परम्परा को और जाग- संजय तथा विजय नामक दो तपस्वियों ने उनका नाम रूक और परिपक्व किया है। डा. अलफ्रेड पार्कर के "सन्मति" रखा था। महावीर कलियुग के वरदान हैं। शब्दों में : हम उनसे "सन्मति" की याचना करते हैं / "महावीर के विचार-मानव कर्त्तव्य शास्त्र की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं / अहिंसा का महान नियम, सबसे बलवान मौलिक सिद्धान्त है जिसके आधार पर मानव मात्र के कल्याण के लिये एक नैतिक जगत की रचना हो सकती है।" आज मनुष्य पुनः विचार करने लगा है कि आत्मचिन्तन तथा एकान्त में स्वरूप लक्षण कितना आवश्यक है। बिना आत्म-चिन्तन हम असली तत्व तक नहीं पहुँच सकते / स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने सन् 1975 में ही प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखा है कि बिना आत्मचिन्तन के आत्म ज्ञान नहीं ही सकता। पूरी मीमांसा के साथ जैन मत यही कहता है / इतालियन विद्वान डा. अलबर्टी पोगी लिखते हैं: - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211669
Book TitleMahavir ka Samyawad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParipurnanand Varma
PublisherZ_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Publication Year
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size373 KB
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