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● डॉ० भानीराम
महावीर का आरोग्य : मेरा रोग
दो ही वर्ष पूर्व वह स्वस्थ एवं सुदर्शन लड़का महावीर के नाम पर चल रहे गणों और गच्छों में से किसी एक में दीक्षित हुआ था और कल रात वह पूछ रहा था कि मेरी चिकित्सा पद्धति में लीवर बढ़ना रोकने तथा बढ़ी हुई लीवर को सामान्य करने की कोई औषधि है या नहीं। जहां वह दीक्षित बालक बैठा था, वहीं शीर्ष स्थान पर भगवान महावीर का ध्यान-मग्न विग्रह चित्रित था । इतना स्वस्थ, सुदर्शन, सबल एवं दीप्तिवान शरीर और वह भी बारह वर्षों के उन रोमांचक तपों तथा देव, मनुष्य कृत उपद्रवों के उपरांत भी आरोग्य, मानसिक, शारीरिक एवं आत्मिक के साक्षात् विग्रह के गण में दीक्षित इस मुनि की, और ऐसे ही हजारों-हजारों मुनियों की यह अवस्था क्यों ? वह क्या आरोग्य मंत्र था जो भगवान जानते थे और हम या तो जानते नहीं, अथवा उसका पालन नहीं करते ?
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आगमों में भगवान महावीर ने रोग के नौ कारण बताये हैं, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे लिए परम चिंतनीय हैं
(1) अत्यधिक आहार करना ।
(2) अत्यधिक भूखे रहना । (3) अत्यधिक विषय सेवन । (4) आवेगों का दमन ।
(5) मल के वेग को रोकना ।
(6) मूत्र के वेग को रोकना।
(7) अत्यधिक विचरण ( विहार या यात्रा) करना ।
हीरक जयन्ती स्मारिका
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(8) एकदम विचरण न करना ।
( 9 ) तीव्र कषाय यथा क्रोध, घृणा ।
प्रतिवर्ष उपवास-पर्वों में मैं हजारों ऐसे बालकों, स्त्री-पुरुषों को उपवास करते देखता हूं जो पेट के घाव (अल्सर) के रोगी हैं और जिनके लिए तीन घंटे से ज्यादा आहार रहित होने से अम्ल बढ़कर पित्त का वमन होता है। धर्म ध्यान के स्थान पर आर्त ध्यान होता है। ऐसे तप को भगवान ने बालपन या अज्ञान तप कहा है
मास मास में जो मूढ़
कुश की नोक पर टिके इतना ही
भोजन करता है - धर्म की
सोलहवीं कला भी नहीं जानता ।
महावीर प्रणीत बारह तपों में उपवास या अनशन तो प्रथम एवं गौण है तथा स्वाध्याय अंतिम तथा श्रेष्ठ है। उपवास के लिए भी भगवान का विधान स्पष्ट है, इन सावधानियों में
(1) इन्द्रियों की क्रिया क्षीण या विकृत न हो ।
(2) कोई शारीरिक रोग न बढ़े।
( 3 ) मन में आर्त्त भाव न आये ।
महावीर की विधि से भिक्षावरी करने वाले भिक्षु या भोजन करने वाले गृहस्थ का प्रतिदिन ही एक आनन्दपूर्ण उपवास है, जहां रोग के लिए स्थान ही नहीं है। भिक्षु को दिन में एक बार भिक्षाचरी करनी है और एक बार ही उसका उपयोग करना है- वह भी दिन के तीसरे प्रहर में। प्रथम प्रहर में कुछ नहीं खाना है। दूसरे प्रहर में गृहस्थ तथा उनके भृत्य ( नौकर चाकर) आदि भोजन करते हैं, उसके बाद बचा हुआ भिक्षुओं तथा श्वान आदि पशुओं को दे दिया जाता है। उसके बाद जो प्रांत (बचा हुआ तथा रक्ष (नीरस) जिसमें घी, तेल, मिर्च-मसाले नहीं हों, ऐसा भोजन साधु दिन के तीसरे प्रहर गवेषणा करता है। द्वारस्थ भिखारियों तथा श्वान आदि पशुओं का भाग मिल जाने और उनके चले जाने के बाद उस प्रांत और रुक्ष ( रस रहित, वसा रहित ) भोजन को वह मधु- घृत की तरह ग्रहण करता है । प्रायः दो घंटे तक भोजन आमाशय से पचकर लीवर से बड़ी आंत में चला जाता है। भोजन के मध्य में अल्प जल लेना हितकर है, किन्तु उसके उपरांत कम से कम घंटे भर जल न लेना सुपाचन के लिए आवश्यक है। दिन का चौथा प्रहर जल सेवन तथा पाचन के लिए बच जाता है। आहार के तत्काल बाद लिया हुआ विपुल मात्रा का जल ही लीवर तथा पाचन अंगों के रोगों को जन्म देता है। महावीर की भिक्षा प्रणाली में इसकी अपेक्षा ही नहीं मल-मूत्र के आवेगों को रोकना महावीर की दृष्टि में शरीर के साथ अपराध है। भगवान का विधान यहां तक है। कि भिक्षाचरी करते समय भी मल या मूत्र का वेग हो तो साधु को
भिक्षा पात्रादि किसी गृहस्थ के स्थान पर रख कर प्रासुक भूमि की गवेषणा
करना चाहिए तथा आवेगों का विरेचन होने के पश्चात् वहां से पात्रादि लेकर भिक्षाचरी के लिए आगे बढ़ना चाहिए। मल के आवेग को रोकने
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विद्वत् खण्ड / ६१
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