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________________ महाराष्ट्र की संस्कृति पर जैनियों का प्रभाव रिषभदास राँका प्रागौतहासिक काल भारतीय संस्कृति अत्यन्त प्राचीन, उन्नत और गरिमामय है। कुछ समय पूर्व यह अर्वाचीन मानी जाती थी। किन्तु धीरे-धीरे अनुसंधानों के प्रकाश में यह भ्रम दूर होता गया। मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा तथा अन्य अवशेषों से यह सिद्ध हो गया कि आर्यों के आगमन के पहले भी भारत में एक समुन्नत संस्कृति प्रवाहमान थी। डॉ. रामधारीसिंह 'दिनकर' ने लिखा है “यह मानना युक्तियुक्त है कि श्रमण संस्था आर्यों के आगमन के पहले विद्यमान थी।" और उसे श्रमण-संस्कृति कहा जा सकता है। इस श्रमण-संस्कृति का संपर्क किस संस्कृति के साथ था इस विषय में विभिन्न मत हैं। स्व. डॉ. रामधारीसिंह 'दिनकर' लिखते हैं-"पौराणिक हिन्द-धर्म आगम और निगम पर आधारित माना जाता है। निगम है वैदिक प्रधान और आगम है श्रमण प्रधान । आगम शब्द बैदिक काल से चली आ रही वैदिकेतर धार्मिक परम्परा का वाचक है। बौद्ध धर्म की स्थापना भगवान बुद्ध ने की है जिनका काल पच्चीस सौ वर्ष पूर्व का निश्चित है। अतः बौद्धों के पहले भारत में श्रमण-संस्कृति थी और उसके जैन होने की संभावना ही अधिक है। भगवान बुद्ध के ढाई सौ वर्ष पूर्व जनों के २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए थे । वेदों में अरिष्टनेमि तथा ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है, जो जैन तीर्थंकर थे। इसलिए अधिक संभव यही है कि प्रागैतिहासिक काल की संस्कृति श्रमण-संस्कृति से मिलती-जुलती या जैन-संस्कृति थी। जैन अनुश्रुतियों से भी संकेत मिलते हैं कि जैन धर्म प्राचीन काल से चला आ रहा है। देखना यह है कि वैदिक अर्थात् ब्राह्मण संस्कृति की क्या विशेषताएं थीं। यह संस्कृति यज्ञ प्रधान थी, जिसमें वेदों तथा ब्रह्म को श्रेष्ठ घोषित किया गया है। ब्रह्म की प्राप्ति के लिए यज्ञ-कर्म को परम पुरुषार्थ माना गया। भौतिक सुखों को प्राप्त कर वर्तमान जीवन को सुखी बनाने के लिए, प्रवृत्ति मूलक विचार और आचार प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं । वर्तमान जीवन सुखी बनाने के लिए प्रयत्न करते थे और आराध्य देव की उपासना इसी दृष्टि से की जाती थी । कुछ प्रार्थनाएं दृष्टव्य हैं-- हम सौ वर्ष तक जियें। हम सौ वर्ष तक अपने ज्ञान को बढ़ाते रहें। हम सौ वर्ष तक पुष्टि और दृढ़ता को प्राप्त करें। हम सौ वर्ष तक आनन्दमय जीवन व्यतीत करें। हम सौ वर्ष तक अदीन होकर रहें। जो स्वयं उद्योग करता है, इंद्र उसकी सहायता करते हैं। जो श्रम नहीं करता, देवता उसके साथ मित्रता नहीं करते। हम सदा प्रसन्नचित्त रहते हुए उदीयमान सूर्य को देखें। ओ मेरे आराध्य देव। आप तेज स्वरूप हैं, मुझमें तेज को धारण कीजिए। आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान कीजिए। आप बल रूप हैं, मुझे बलवान कीजिए। आप ओज रूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए। आर्य पराक्रमी थे। वे अपने प्रयत्नों द्वारा तथा देवताओं को प्रसन्न कर उपलब्ध जीवन को सुखी बनाना चाहते थे। इसके लिए कर्म को प्राधान्य देते थे। वे प्रवृत्ति परायण थे। प्राचीन श्रमण संस्कृति के लोग योग, संयम, अध्यात्म और पुनर्जन्म को मानने वाले प्रतीत होते हैं। स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने लिखा है कि "अति प्राचीन काल से भारत की मानसिकता दो धाराओं में विभक्त रही है, एक धारा कहती है कि जीवन सत्य है और हमारा कर्तव्य है कि हम बाधाओं पर विजय प्राप्त करके जीवन में जयलाभ करें एवं मानव बन्धुओं का उपकार करते हुए यज्ञादि से देवताओं को भी प्रसन्न करें, जिससे हम इस ओर उन दोनों - राजेन्द्र-ज्योति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211658
Book TitleMaharashtra ka Sanskruti par Jainiyo ka Prabhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRishabhdas Ranka
PublisherZ_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
Publication Year1977
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size2 MB
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