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________________ महाबंध करता है। आयुकर्म के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। मात्र वह आठ कर्मों का बन्ध करनेवाला होना चाहिए। जघन्य स्वामित्व का विचार इस प्रकार है--जो तद्भवस्थ होने के प्रथम समय में स्थित है और जघन्य योग से जघन्य प्रदेशबन्ध कर रहा है ऐसा सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव आयुकर्म को छोडकर सात कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। जो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव क्षुल्लक भवके तीसरे त्रिभाग के प्रथम समय में जघन्य योग से आयुकर्म का जघन्य प्रदेश कर रहा है वह आयु कर्म के जघन्य प्रदेशबन्ध का स्वामी होता है। यह महाबन्ध में निबद्ध अर्थाधिकारो में से कुछ उपयोगी विषय की संक्षिप्त मीमांसा है। समग्र जैन समाज में जो कर्म साहित्य पाया जाता है वह न केवल इसके एक बूंद के बराबर है, अपि तु इसमें से मुख्य-मुख्य विषय को लेकर ही उसका संग्रह किया गया है। समग्र षट्खण्डागम में जितनी विपुल सामग्री निबद्ध की गई है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह उस समय की रचना है जब अंग-पूर्व ज्ञान आनुपूर्वी से इस भूतल पर विद्यमान था। इसमें बहुतसा ऐसा विषय भी संगृहित है जिस के अन्य साहित्य में दर्शन भी नहीं होते। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित पण्णवणा में यद्यपि षट्खण्डागम का कुछ अल्प मात्रा में विषय संग्रहित अवश्य है और उसकी रचना भी शिथिल है, पर मात्र इसी कारण से षट्खण्डागम की रचना को पण्णवणा के बाद की घोषित करना सम्प्रदाय व्यामोह ही कहा जायगा। श्वेताम्बर विद्वानों की यह मूल प्रकृति है कि वे श्वेताम्बर परम्परा को दिगम्बर परम्परा से प्राचीन सिद्ध करने के लिए नाना प्रकार की कुयुक्तियों का सहारा लेते रहते हैं। उनके इस आक्रमण का दायरा बहुत व्यापक है। वे दिगम्बर परम्परा के पुरातत्त्व, साहित्य और इतिहास इन तीनों को अपनी दुरभी सन्धि का लक्ष्य बनाये हुए हैं। उनकी यह प्रकृति नई नहीं है। फिर भी दिगम्बर परम्परा का यह कर्तव्य अवश्य है कि वह इस ओर विशेष ध्यान दें और वस्तु स्वभाव के अनुरूप इस परम्परा के सब अंगों को पुष्ट करें। तभी इस काल के अन्त तक इसके सभी अंगों की उत्तम प्रकार से रक्षा करना सम्भव हो सकेगा। यद्यपि षट्खण्डागम की प्राचीनता आदि पर हमारा विस्तृत लिखने का विचार अवश्य है / और समय आने पर लिखेंगे भी। किन्तु इस समय उसके लिए आवश्यक सामग्री का योग न होने से मात्र इतना संकेत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211652
Book TitleMahabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shatri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size2 MB
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