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महान् प्रतापी श्रोमोहनलालजी महाराज
[भवरलाल नाहटा ]
पंचमकाल में जिनेश्वर भगवान के अभाव में जिनशासन को सुशोला धर्मपत्नी सुन्दरबाई की कुक्षि से हुआ था। को अक्षुण्ण रखने में जिनप्रतिमा और जैनागम दोनों प्रबल आपका नाम मोहनलाल रखा गया, जब आप सात वर्ष कारण हैं जिसकी रक्षा का श्रेय श्रमण परम्परा को है। के हुए माता-पिता ने नागौर आकर सं० १८९४ में यति उन्होंने हो अपने उपदेशों द्वारा श्रावक-गृहस्थ वर्ग को धर्म श्रीरूपचन्द्रजी को शिष्य रूपमें समर्पण कर दिया। यतिजी में स्थिर रखा और फलस्वरूप सातों क्षेत्र समुन्नत होते ने आपको योग्य समझकर विद्याभ्यास कराना प्रारम्भ रहे । सुदूर बंगाल जैसे हिंसाप्रधान देश में तो यतिजनों ने किया । अल्प समय में हुई प्रगति से गुरुजी आप पर बड़े विचर कर जैन धर्मी लोगों को धर्म-मार्ग में स्थिर रखा है। प्रसन्न रहने लगे। उस समय श्रीपूज्याचार्य श्रीजिनमहेन्द्रसमय-समय पर आये हुए शैथिल्य को परित्याग कर शुद्ध सूरिजी बड़े प्रभावशाली थे और उन्हों के आज्ञानुवर्ती साध्वाचार को प्रतिष्ठा बढाने वाले वर्तमान साधु-समुदाय यति श्रीरूपचन्द्रजी थे। दीक्षानंदी सूची के अनुसार आप के तीनों महापुरुषों ने क्रियोद्धार किया था । श्रीमद् की दीक्षा सं० १६०० में नागोर में होना सम्भव है । देवचन्द्रजी, जिनहर्षजी आदि अनेक सुविहित साधुओं को मोहन का नाम मानोदय और लक्ष्मोमेरु मुनि के पौत्रपरम्परा अब नहीं रही है पर क्षमाकल्याणजी महाराज शिष्य लिखा है। जोवनचरित के अनुसार आपकी दोक्षा जिनका साधु-साध्वी समुदाय खरतर गच्छ में सर्वाधिक है, मालय देश के मकसीजी तोर्थ में श्री जिनमहेन्द्रसूरिजी के कर पश्चात् महान्-प्रतापी तपोमूर्ति श्रीमोहनलालजी महाराज का कमलों से हुई थी। इन्हीं जिसमहेन्द्रसूरि जो महाराज ने पुनीत नाम आता है। आपने पहले यति दोशा लेकर लख- तीर्थाधिराज शत्रुजय पर बम्बई के नगरसेठ नाहटा नऊ में काफी वर्ष रहे फिर कलकत्ता-बंगाल में विचरणकर गोत्रीय श्री मोतीशाह की ट्रॅक में मूलनायका दि अनेकों यहीं से वैराग्य में अभिवृद्धि होने पर तीर्थयात्रा करते हए जिन प्रतिमाओं को अंजनशलाका प्रतिष्ठा बड़े भारी अजमेर जाकर फिर त्याग-मार्ग की ओर अग्रसर हुए थे, ठाठ से कराई थी। उनका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जाता है।
श्रीमोहनलालजी महाराज ने ३० वर्ष तक यतिपर्याय महान् शासन-प्रभावक श्रीमोहनलालजी महाराज में रहकर सं० १९३० में कलकत्ता से अजमेर पधारकर अठारहवीं शताब्दी के आचार्यप्रवर श्रीजिनमुखसरिजी के क्रियोद्धार करके संवेगपक्ष धारण किया। आपका साध्वाविद्वान् शिष्य यति कर्मचन्द्रजी-ईश्वरदासजी-वृद्धिचन्द्रजी- चार बड़ा कठिन और ध्यान योग में रत रहते थे एकवार लालचन्दजो के क्रमागत यति श्रीरूपचन्दजी के शिष्यरत्न अकेले विचरते हुए चल रहे थे नगर में न पहुंच सके तो थे । आपका जन्म सं० १८८७ वैशाख सुदि ६ को मथुरा वृक्ष के नोचे ही कायोत्सर्ग में स्थित रहे, आपके ध्यान के निकटवर्ती चन्द्रपुर ग्राम में सनाढ्य ब्राह्मग बादरमलजी प्रभाव से निकट आया हुआ सिंह भी शान्त हो गया।
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