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समयसुन्दर और उनका छत्तीसी साहित्य
महावीर नई काने खीला, गोवालिए ठोक्या कहिवाय, द्वारिका दाह पांणी सिर प्रांण्यड, चंडाल नई घरि हरिश्चंद राय । लखमण राम पांडव वनवासि, रावण बध लका लू टाय, समयसुन्दर कहइ कहउ ते कहूं परिण, करम तरणी गति कही न जाय ।। २८ ।।
इस कर्म प्रधानता का ग्रेक और पहलू भी कवि ने हमारे सम्मुख उपस्थित किया है । कर्मों (भाग्य) द्वारा ही सबको दुःख सुख भोगने होते हैं, यह मानकर किसी को हाथ पर हाथ रखकर बैठ भी नहीं जाना चाहिये। अनवरत उद्यम का भी अपना विशिष्ट महत्त्व है। कविवर इन दोनों को मान्यता प्रदान करते हैं
बखत मांहि लिख्यउ ते लहिस्यइ, निश्चय बात हुयइ हुरणहार, एक कहई काछड़ बांधीन इं उद्यम कीजइ अनेक प्रकार | नीलण करमा वाद करंता इम समयसुन्दर कहइ बैंक
भगड़उ भागढ पहुतौ दरबारि ।
कहइ बेऊ मानउं, निश्चय मारग नई व्यवहार ||२६|
कर्म और उद्यम की व्याख्या के बाद कवि ने लोकव्यवहार के संबंध में भी कुछ बातें बतलाई हैं। लोकव्यवहार में आदमी को बड़ा सतर्क रहना चाहिये। परनिंदा और आत्मप्रशंसा से विलग होकर सदैव अपने प्रापको तुच्छ अवं दूसरों को महान मानना चाहियें। वस्तुतः दूसरों की निंदा करने में रखा ही क्या है ? सब अपने-अपने कर्मों का फल तो भोग ही लेते हैं। पर निंदक को कोई पूछता तक नहीं, उसकी गिनती चांडालों में की जाती है। जिनका स्पर्श तक करने में लोग घृणा का अनुभव करते हैं । असे व्यक्तियों को नर्क की कठोर यातनायें सहनी पड़ती है-
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अपणी करणी पार उतरणी पार की बात मई को पड़उ, पूठि मांस खालउ परनिंदा लोकां सेती कांद लड़उ । लड़उ (निदा म कर कोइ केहनी तात पराई मैंमत पड़उ ) निदक नर चंडाल सरीखउ एहनई मत कोई आभड़उ
समयसुन्दर कहद्द निंदक नर नई नरक मांहि वाजिस्य दडउ ।।३३।।
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परनिंदा और मिथ्या भाषण- इन दोनों से दूर रह इस संसार को असार मानकर पंच महाव्रतों का पालन करते हुये जो लोग जप तप और उत्कृष्टी क्रिया करते हैं, निस्संदेह उन्हीं विरल व्यक्तियों को सच्चे जिन धर्मोपासक कहा जा सकता है।
अंत में कवि जैन धर्म की महानता को स्वीकार करता हुआ यह कामना करता है कि इस जन्म के बाद आगे भी वह किसी जैन-धर्मावलंबी के यहां ही उत्पन्न हो
साच एक धरम भगवंत नउ दुरगति पड़तां द्यइ आधार । समयसुन्दर कहद जैन चरम जिहां तहां हइज्यो माह अवतार ||३७||
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