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समयसुन्दर और उनका छत्तीसी साहित्य
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यतियों को अपना पंथ बढ़ाने का सुवसर मिल गया। लोग पथ-विचलित होने लगे । धंधा उठने से धर्म और धैर्य की जड़ें खिसक उठीं। श्रावकों ने साधुनों की सार-सँभाल छोड़ दी । शिष्यों ने भूख से बाधित हो उदरपूर्ति के लिये गुरुयों को ही पत्र-पुस्तकें, वस्त्र पात्रादि बेचने के लिए विवश किया।"
धर्म-ध्यान भी लुप्त होने लग गया था। भूख के मारे भगवान का भजन किसे भाता है । लोगों ने मन्दिरों में दर्शन करने जाना छोड़ दिया। शिष्य ने शास्त्राध्ययन बन्द कर दिया। गुरुवंदन की तो परंपरा ही उठ गई । गच्छों में व्याख्यान परंपरा मंद पड़ गई। लोगों की बुद्धि में फेर यथा गया था।
अनेक लक्षाधीश साहूकारों की सहायता के उपरांत उस 'भुखमरी' में अनेक मनुष्य बेमौत मरे । उनकी अथियाँ उठाने वाले ही नहीं मिल रहे थे । घरों में हाहाकार मच रहा था और गलियों तथा सड़कों पर शवों की दुर्गंध व्याप्त थी। अनेक सूरि-गपतियों को भी हत्यारे काल ने अपने गाल में ले लिया ।
स्वयं कवि पर भी इस प्रबल दुष्काल के कई तमाचे पड़े । पौष्टिक भोजन के अभाव में उसकी काया कृश हो गई। उपवासों से रही-सही शक्ति भी चली गई। धर्मध्यान और गुरुगुणगान ही उसके जीवनपथ का संबल रह गया था। घंसे भीषण अकाल के समय यद्यपि शिष्यों ने कवि की कम ही सार-संभाल ली, किंतु अन्य अनेक धावकों धौर सेवाप्रतियों ने यथासामर्थ्यं साधुओं और भिखारियों आदि के भोजन की व्यवस्था की जिनमें प्रमुख थे— सागर, करमसी, रतन, बखराज, ऊदो जीवा, सुखिया वीरजी, हाथीशाह, शाह लहूका, तिलोकसी प्रादि । श्रहमदाबाद में प्रतापसी शाह की प्रोल में रोटी और बाकला बांटने की व्यवस्था
१. दुखी यथा दरसणी, भूख घाधी न खमावइ चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह पर छांडउ
२. पडिकमरणउ पोसाल कररण को श्रावक नावद देहरा सगला दीठ, गीत गंधर्व न गावइ । शिष्य भरणइ नहीं शास्त्र, मुख भूखइ मंच कोड ड; गुरुवंदर गइ रीति, छती प्रीत मारणस छोडइ ।
बखाण खाण माठा पड्या, गच्छ चौरासी एही गति;
'समयसुंदर' कह सत्यासीया, काइ दोधी तई ए कुमति ।। १५ ।। ( स. सु. कृ. कु. पृ० ५०५ )
३. मूत्रा घणा मनुष्य, रांक गलीए रडवडिया; सोजो वल्वड सरीर, पछs पाज मांहे पडिया
श्रावक न करी सार खिरा धीरज किम भायद । पुस्तक पाना बेचि, जिम तिम सम्हन जीवांडर || ( स. कृ. कु. छंद १३, पृष्ठ ५०५ )
कालइ कवरण वलाइ कुरण उपाडइ किहां काठी;
तांणी नाख्या तेह, मांडि यह सबली माठी
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दुरगंधि दशोदिशि कली, माडा पाड्या दीसह मूसा ।
समयसु दर कहइ सत्यासीया, किरण घरि न पड्या कूकुप्रा ।। १७।। ( स. कृ. कु. पृ० ५०६ )
४ पछि श्राव्यउ मो पासि तु श्रावतउ मई दीठउ; दुरबल कीधी देह, म करि का भोजन मीठउ ।
दूध दही घृत घोल, निपट जीमिया न दीघा ।
शरीर गमाडि शक्ति, कई लंघन परिण कोधा ।
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धर्म ध्यान अधिका धर्या, गुरुदत्त गुराराउ पि गुण्य;
समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तु ने हाक मारिनइ मई हृण्यउ || १२|| (स. कु. कु. पृ० ५०७ )
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