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________________ महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व संस्कृत विद्वानों में यह कहा जाता रहा है कि 'बोणोच्छिष्ट जगत् सर्वत' अर्थात्-बाण के अनन्तर समस्त संस्कृत साहित्य बाण के उच्छिष्ट (त्यक्त वस्तु) के समान है / बाण की प्रशस्ति में लिखे गये ये पद्य 'कविकुम्भिकुम्भभिदुरो बाणस्तु पञ्चाननः' श्रीचन्द्रदेव (शाङ्गधर पद्धति 117) 'युक्त कादम्बरी श्रुत्वा कवयो मौनमाश्रिताः / बाणध्वानावनध्यायो भवतीनि स्मतिर्यतः / / कीति कौमुदी 1,15. 'बाणस्य हर्षचरिते निशितामूदीक्ष्य, शक्ति न केत्र कवितास्त्रमदं त्यजन्ति / कीथ का इतिहास पृ० 397 इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि बाण की अप्रतिम गद्य रचना 'कादम्बरी' को देखकर किसी कवि का साहस नहीं होता था कि वह बाण के मार्ग पर चलकर उनकी गद्य रचना शैली को आगे बढ़ाये / यही कारण है कि बाण के पश्चात् लगभग 300 वर्षों तक कादम्बरी की समानता करने वाली कोई उत्कृष्ट गद्य रचना उपलब्ध नहीं है। महाकवि धनपाल ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने कवियों के हृदय से, बाण के भय-व्यामोह को दूर किया और अपनी तिलकमञ्जरी को कादम्बरी की श्रेणी में बिठाने का प्रयत्न किया। इसका परिणाम यह हुप्रा कि धनपाल के पश्चात् वादीभसिंह (गद्य चिन्तामणि), सोड्ढ़यल (उदय सुन्दरी कथा), बामन भट्ट बाण (वेम-भूपाल चरित-हर्ष चरित के अनुकरण पर) आदि कवियों ने बाण की शैली पर रचनायें लिखीं।' तिलक मञ्जरी की रचना के लगभग एक शताब्दि के पश्चात् पूर्ण तल्लगच्छीय श्री शान्तिसूरि ने इस ग्रन्थ पर 1050 श्लोक प्रमाण टिप्पणी की रचना की जो पाटन के जैन भण्डार की प्रति के अन्त में दिए गए निम्न श्लोक से प्रमाणित है श्री शान्तिसुरिरिह श्रीयति पूर्णतल्ले गच्छे वरो मतिमतां बहशास्त्रवेत्ता / तेनामलं विरचितं बहधा विमृश्य संक्षेपतो वरमिदं बुध टिप्पितंभोः / / इस ग्रन्थ पर श्री विजय लावण्य सूरि ने (विक्रम संवत् 2008 में प्रकाशित) पराग नामक एक विस्तृत टीका लिखी है। धनपाल, विक्रम की 11 वीं शताब्दि के संस्कृत और प्राकृति भाषा के उत्कृष्ट विद्वान थे। गद्य और पद्य दोनों की रचना पर उनका समान अधिकार था। शब्द और अर्थ, भाषा और भाव, वशीभूत के समान उनकी लेखनी का अनुगमन करते थे। उन्होंने बाण की गद्य शैली की परम्परा को निबाहते हुए, गद्य काव्य को कुछ और सरल और सरस बनाकर उसे जनता के अधिक निकट पहुँचाने का प्रयत्न किया। निःसं. देह, धनपाल अपने इस ऐतिहासिक कार्य के लिए संस्कृत साहित्य के इतिहास में अमर रहेंगे / किसी कवि का यह कथन धनपाल के लिए अत्यन्त उचित प्रतीत होता है. तिलकमञ्जरी मञ्जरिसञ्झरिलोलहिपश्चिदन्मिजालः / जनारण्येऽसालः कोऽपि रसालः पपाल धनपालः / / 4 १--बामदेव उपाध्याय, संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ० 268. २--पाटन के 'संघवीपाड़ा जैन भण्डार' की 125 वीं प्रति (गायक वाड़ अोरियण्टल सिरीज नं० ७६-'पाटन जैन भण्डार केटलाग' प्रथम भाग, पृष्ठ 87) ३--तिलकमञ्जरी, श्री शान्तिसूरि रचित टिप्पणी तथा श्री विजय लावण्य-सूरि रचित टीका (पराग) के साथ प्रकाशित / प्रकाशक--श्री विजयलावण्य-सूरिश्वर ज्ञान मन्दिर, बोटाद, सौराष्ट्र, वि० सं० 2008. ४--तिलक० पराग० प्रस्तावना---पृ० 16. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211639
Book TitleMahakavi Dhanpal Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size898 KB
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