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________________ महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वचन श्री धनपालस्य चन्दनं मलयस्य च । सरसं हृदि विन्यस्य कोऽभून्नाम न निर्वृतः ।।' (धनपाल कवि के सरस वचन और मलयगिरि के सरस चन्दन को अपने हृदय में रखकर कौन सहृदय तृप्त नहीं होता।) संस्कृत भाषा के गद्यकाव्य का श्रेष्ठ प्रतिनिधित्व करने वाले तीन महाकवि, विद्वज्जनों में अत्यन्त विख्यात हैं-दण्डी, सुबन्धु और बाण। संस्कृत-गद्य साहित्य की एक प्रौढ रचना "तिलकमञ्जरी” के प्रणेता महाकवि धनपाल भी उस कवित्रयी के मध्य गौरवपूर्ण पद पाने के योग्य हैं ।। धनपाल, संस्कृत और प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने प्रौढ ज्ञान के कारण वे "सिद्धसारस्वत धनपाल"२ के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने गद्य और पद्य, दोनों में अनेक रचनायें की हैं, किन्तु उनकी "तिलक मञ्जरो" अपने शब्द सौन्दर्य, अर्थगाम्भीर्य, अलङ्कार नैपुण्य, वर्णन वैचित्र्य, रस-रमणीयता और भाव प्रवणता के कारण, लगभग एक हजार वर्षों से विद्वानों का मनोरञ्जन करती चली पा रही है। प्रायः सभी आलोचक “तिलकमञ्जरी” को “कादम्बरी" की श्रेणी में बिठाने के लिए एक मत हैं। जीवन परिचय तथा समय-गद्य काव्य की परम्परा के अनुसार कवि ने तिलकमञ्जरी के प्रारम्भिक पद्यों में अपना तथा अपने पूर्वजों का परिचय दिया है । इसके अतिरिक्त, प्रभावक चरित (प्रभाचन्द्राचार्य) के "महेन्द्रसूरि प्रबन्ध," प्रबन्ध चिन्तामणि (मेरुतुङ्गाचार्य) के "महाकवि धनपाल प्रबन्ध" सम्यक्त्व-सप्ततिका (संघतिलक सूरि) भोज प्रबन्ध (रत्न मन्दिर गणि), उपदेश कल्पवल्ली (इन्द्र हंसगणि), कथारत्नाकर (हेम विजय गणि), आत्मप्रबोध (जिनलाभ सूरि), उपदेश प्रासाद (विजय लक्ष्मी सूरि) आदि ग्रन्थों में कवि का परिचय स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है। धनपाल, उज्जयिनी के निवासी थे। ये वर्ण से ब्राह्मण थे। इनके पितामह “देवर्षि" मध्यदेशीय सांकाश्य नामक ग्राम (वर्तमान फरुखाबाद जिला में "संकिस" नामक ग्राम) के मूल निवासी थे और उज्जयिनी में आ बसे थे। इनके पिता का नाम था सर्वदेव, जो समस्त वेदों के ज्ञाता और क्रियाकाण्ड में पूर्ण निष्णात थे। सर्वदेव के दो पुत्र-प्रथम धनपाल और द्वितीय शोभन, तथा एक पुत्री-सुन्दरी थी। १-'तिलकमञ्जरी' पराग टीका, प्रकाशक, लावण्य विजय सूरीश्वर ज्ञान मन्दिर, बोटाद ( सौराष्ट्र ) (संकेत-तिलक. पराग०) पृष्ठ २४, प्रस्तावना में लिखित । २–'समस्यामर्पयामास सिद्धसारस्वतः कविः' प्रभावक चरित, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ईस्वी सन् १९४० ३-तिलकमञ्जरी, पद्य नं० ५१, ५२, ५३ ४-तिलक. पराग प्रस्ताविक पृष्ठ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211639
Book TitleMahakavi Dhanpal Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Biography
File Size898 KB
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