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मन एक चिन्तन विश्लेषण / २६५
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विक्षिप्त और यातायात मन जितनी बाहरी वृत्ति वाले हैं, श्लिष्ट और सुलीन मन उतनी भीतरी वृत्ति वाले हैं। पहले में उद्धतता दूसरे में उच्छृंखलता, तीसरे में शालीनता, चौथे में तल्लीनता है। विक्षिप्त घड़ियल घोड़ा गोलाकार घूमता, यातायात निरुद्देश्य भागता, श्लिष्ट सही दिशा पकड़ता, सुलीन गन्तव्य स्थान पाता है।
मन की महिमा
( १ ) मन, श्रविश्वासी धीवर है । जैसे धीवर जल में जाल फैला मछलियाँ फँसाता है, वैसे ही मनरूपी धीवर खोटे विकल्पजाल में फँसकर नरकाग्नि में जलाता है। इसलिए मन के मत के अनुसार मत चलिए, मन के अनेक मत है, यह समझकर एक मन को जीतें और मन को वश में कर सही साधु बनें ।
(२) मन को मित्र बनाइये, प्रार्थना कीजिए कि दीर्घकालिक मित्र ! कृपा करो, बुरे विकल्पों से बचाओ, संसार में मत फँसाप्रो, सत्संकल्पों से सन्नद्ध करो ।
(३) मन पर अंकुश रख मन को वश कर लो तो क्षण भर में वह स्वर्ग- मोक्ष भी दे सकता है। कार्य भले न हो पर मानसिक चिन्तन से मन तो अपराधी होता ही है। तन्दुल मत्स्य सप्तम नरकगामी ज्वलन्त उदाहरण है ।
(४) न देवता सुख - दुख देते, न शत्रु-मित्र काल कुछ करते, मनुष्य को मन ही घुमाता है ।
(५) जिसका मन वश में है, उसे नियम-यम से क्या लेना देना और जिसका मन वश में नहीं है उसका जप-तप-संयम निष्फल निरुद्देश्य है ।
(६) दान ज्ञान, तप ध्यान जैसे धार्मिक अनुष्ठान मन का निग्रह किये बिना सम्भव नहीं है । कषायजनित चिन्ता श्राकुलता व्याकुलता बढ़ाती है । जिसका मन वश में है, वह योगी है उसकी देव पूजा, शास्त्र स्वाध्याय, संयम-तप-दान गरूड़ उपासना सफल है।
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(७) न जप से मोक्ष मिलता, न अन्तरंग बहिरंग तप से, न संयम, दम, मौन धारण प्राणायाम से मोक्ष मिलता मोक्ष तो अन्तःकरण को जीतने से मिलता है।
(८) जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित, जैनधर्म रूपी दुर्लभ जहाज को मनुष्य मन रूपी पिशाच से प्रस्त होकर संसार समुद्र में गिरता है तो चेतन बल्कि जड़ (मूर्ख अज्ञानी) ही है।
(९) जिसका मन विवश है, उसके मन वचन काया तीन दुश्मन हैं। ये विपत्ति का पात्र बना देंगे ।
पाकर भी यदि (बुद्धिमान् ) नहीं
(१०) हे चित्त रूपी बैरी ! मैंने तेरा क्या अपराध किया, जो चिद्रूप में रमण नहीं करने देता, बुरे विकल्पों के जाल में फँसा दुर्गति में फेंकता है। मोक्ष के सिवाय अन्य भी स्थान हैं, जहाँ मनुष्य सुख-शान्ति का वरण कर सकता है पर तू तो मेरा कहना ही नहीं सुनता ।
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(११) जिस प्राणी का मन विषम है, विषाक्त है, वह सन्ताप ही पाएगा । जैसे कुष्ठ रोगी को कोई सुन्दरी नहीं चाहती, वैसे ही विपत्ति के मारे को भी लक्ष्मी नहीं चाहती ।
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धम्मो दीवो संसार समुद्र
मे
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