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मन : एक चिन्तन : विश्लेषण लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज', एम. ए.
मन का स्थान
जैन महापुरुषों ने संसार के प्राणियों को दो भागों में विभाजित किया है
(१) संज्ञी अथवा समनस्क या मनसहित ।
(२) श्रसंज्ञी अथवा श्रमनस्क अर्थात् मनरहित ।
प्रथम संज्ञी की परिभाषा दी - जो मन सहित हो, शिक्षा - उपदेश ग्रहण कर सके । जैसे पुरुष-स्त्री, बच्चा - बृद्ध, बन्दर-घोड़ा, हाथी- कबूतर आदि । द्वितीय असंज्ञी की परिभाषा दी, जो मन रहित हो, शिक्षा उपदेश ग्रहण नहीं कर सके, जिसका जन्म माता-पिता के रज और वीर्य के विना हुप्रा हो । जैसे जल का सर्प, कोई कोई तोता । संसार में समनस्क अधिक हैं अथवा अमनस्क ? संसार में विद्वान् अधिक हैं अथवा अविद्वान् ? दोनों प्रश्नों का उत्तर लगभग एक ही है यानी समनस्क और विद्वान् अल्प हैं तथा अमनस्क और अविद्वान् अधिक हैं। एकेन्द्रिय [पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ] द्वीन्द्रिय [लट, केंचुआ, जोंक, शंख] त्रीन्द्रिय [चींटी, चिवटा, खटमल, जूं ] चौन्द्रिय [ भौंरा, बर्र, मक्खी-मच्छर ] तक सभी जीव अमनस्क हैं | पंचेन्द्रिय [मनुष्य, पशु-पक्षी, देवता- नारकी] चार भागों में विभक्त है ।
मन पाँच इन्द्रियवालों के ही हुआ करता है । यह इन्द्रियों [स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ] से ऊपर है। मन की रचना मनन करने के लिए हुई । मन, शरीर और आत्मा दोनों का प्रतिनिधित्व करता है । मन ही मस्तिष्क को चिन्तन हेतु विचार-शक्ति देता है और मन ही इन्द्रियों को कार्य करने की प्रेरणा देता है । मन, दर्शन-ज्ञान, चारित्र और तप आराधनाश्रों का आधार बनता है और मन ही यतिज्ञान - श्रुतज्ञान की आधारशिला है । मन की महत्ता शब्दातीत है । मन, सुमन होकर अपनी सुगन्ध से संसार को भी सुवासित करता है, सदाचारी होकर संसार सन्तुलित सुखद जीवन का सन्देश " जियो और जीने दो' देता है पर मन कुमन होकर को दुराचारों की दुर्गन्ध लिए संसार को दुःखमय बनाता है, अशान्ति और विवेक लिए युद्ध को तीर्थं बनाता है, शस्त्रों का व्यापारी बनता है, प्रस्तर की नौका सा स्वयं डूबता है और अन्य
सीन जन-समुदाय को भी डुबाता है । चूंकि सुमन, श्राग में बाग लगाता है और कुमन, बाग में आग लगाता है, अतएव योगवाशिष्ठकार की यह सूक्ति सहज ही समझ में श्रा जाती है कि मन, एक नदी के समान है, जो पाप और पुण्य - दोनों ओर बहती है । मन को द्विमुखी जोंक समझ ही शायद सर्वार्थसिद्धिकार ने भी ईषद् इन्द्रिय या श्रनिन्द्रिय लिखा है ।
१. चित्तनदी नाम उभयवाहिनी वहति पापाय च पुण्याय च ।
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धम्मो दीवो संसार समुद्र में
धर्म ही दीप है
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