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मध्यकालीन राजस्थानी काव्य के विकास में कवयित्रियों का योगदान
- डॉ० शान्ता भानावत
राजस्थानी साहित्य शौर्य, शक्ति और भक्ति का साहित्य है। इसने प्रत्येक नर-नारी को त्याग, बलिदान, साहस, वीरता एवं धर्म की रक्षा का पाठ पढ़ाया। यहां के युगल प्रेमी दाम्पत्यधर्म की पवित्रता और सतीत्व की रक्षा के लिये मर मिटे हैं। यहाँ की नारी पुरुष को कर्तव्यपालन की प्रेरणा ही नहीं देती वरन् अवसर आने पर स्वयं हाथ में तलवार भी उठाती है। युद्धक्षेत्र से परास्त होकर पति के भाग आने पर वह उसे ऐसी व्यंग्योक्तियां सुनाती हैं कि उसके कायर दिल में बिजली का वेग दौड़ पड़ता है। भक्तिक्षेत्र में भी यहाँ के साहित्य ने भक्त और भगवान के मधुर सम्बन्धों को वाणी दी है तो रीति के क्षेत्र में कई नवीन काव्यशास्त्रीय मानदण्ड स्थापित कर अपना विशिष्ट व्यक्तित्व प्रतिफलित किया है।
राजस्थान में साहित्यसृजन के क्षेत्र में महिलाएं पीछे नहीं रहीं। यहाँ की विदुषी कवयित्रियों का साहित्य वीर, भक्ति और शृगार भावों से भरापूरा है। यहाँ १४ वीं शती से १९ वीं शती के मध्य होने वाली कवयित्रियों का साहित्यिक परिचय संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
अध्ययन की सुविधा के लिए मध्यकालीन विभिन्न धाराओं की कवयित्रियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है
१. डिंगल काव्यधारा की कवयित्रियाँ २. रामकाव्यधारा की कवयित्रियां ३. कृष्णकाव्यधारा की कवयित्रियाँ ४. निर्गुणकाव्यधारा की कवयित्रियाँ ५. जैनकाव्यधारा की कवयित्रियाँ ।
१. डिगल काव्यधारा की कवयित्रियाँ
इस धारा की कवयित्रियों की मुख्य भाषा डिंगल (राजस्थानी की चारण शैली) है। इन कवयित्रियों का सम्बन्ध मुख्यत: राजघरानों या चारण परिवारों से रहा है। इनकी कविताओं में प्रमुख रूप से वीर और शृगार रस की अभिव्यंजना हुई है। इन कवयित्रियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से एक ओर राजाओं में साहित्यानुराग पैदा किया तो दूसरी भोर संयोग-वियोग में उठने वाले भावों द्वारा नायक-नायिकाओं के हृदय की धड़कन को पहचाना । जिस प्रकार चारण कवियों की लेखनी ने रणबांकुरे राजानों को युद्धभूमि में उत्साहित कर वीरोचित भावनाएँ भरी वैसे ही इन कवयित्रियों ने घर बैठे अपनी कविताओं
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