________________
मथुरा का प्राचीन जैन-शिल्प
१९७
शा
को जो लिपि श्री ऋषभदेव जी ने पढ़ाई थी, वह ब्राह्मी लिपि के नाम से प्रसिद्ध हई । चक्रवर्ती भरत ने बाहुबलि की तपस्या-भूमि पर उनकी अनुकृति का निर्माण कराया था, किन्तु काल के थपेड़ों से वह नष्ट हो गयी।
उसी भमि पर गंग नरेश 'राजमल्ल' के प्रधान सेनापति वीरवर श्री 'चामुण्डराय' ने कल्कि संवत ६०० में विभव संवत्सर चैत्र शुक्ल ५, बार रवि, कुम्भ-लग्न, सौभाग्य-युग, मृगशिरा-नक्षत्र में मूर्ति की स्थापना कर मस्तकाभिषेक कराया। गणितज्ञ-विद्वानों के अनुसार वह २३ मार्च १०२८ ई० का दिन था। 'मस्तकाभिषेक' की परम्परा में प्रत्येक १२ वर्षों पर वहाँ मेला होता है।
'श्रमण-बेल-गोला' आज केवल जैनियों का ही तीर्थ नहीं रहा । बल्कि विश्व के पर्यटकों व सैलानियों के सभी आकर्षण का वह स्थान है। नित्य प्रति सैकडों यात्री उस पहाड़ी की चोटी पर भगवान गोम्मट्टे श्वर की उस आश्चर्यमयी-प्रतिमा के दर्शन कर कृत्य-कृत्य होते हैं।
विन्ध्यगिरि-पर्वत के दक्षिण प्रसार में दोड्डवेट्ट (इन्द्रगिरि) तथा चिक्कवेट (चन्द्रगिरि) पहाड़ियों की तलहटी में कल्याणी-सरोवर के निकट की बस्ती का नाम 'श्रमण-बेल-गुल' है। यह शब्द 'कन्नड़ भाषा' का है, और इसका भावार्थ है- 'जैन-साधुओं का धवल-सरोवर"। इस भूमि पर अतीतातीतकाल से जैन-श्रमणों ने तपस्या कर समाधि-मरण द्वारा मुक्ति प्राप्त की है। इसे 'दक्षिण काशी, जैन बदरी, देवलपुर और गोम्मटपुर" भी कहा जाता है।
प्राप्त शिलालेखों के आधार पर यह ईसा से ३०० वर्षों के पूर्व का इतिहास प्रगट होता है। मैसर विश्वविद्यालय के शोध विभाग में प्रदेश के ५०० शिलालेखों का संग्रह है। जिनका उल्लेख एपिग्राकिया कर्नाटिका में पूर्ण विवरण सहित प्रकाशित है। शिलालेख सम्राट चन्द्रगुप्त से सम्बद्ध हैं। इनमें जन-धर्म के अनुयायियों की गुण-गाथा, दक्षिण-भारत के जैनाचार्यों की परम्परा, जैन राजवंशों का परिचय आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। संसार की बेजोड़ ५७ फुट ऊँची प्रतिमा पर्वत शिखर पर बिना आधार के स्थित है। जो आश्चर्यप्रद कला-निर्माण का डंका हजारों वर्षों से गुन्जित कर रही है । बाहुवलि सुन्दर होने के कारण 'मन्मथ' की संज्ञा से विभूषित थे। कन्नड़-भाषा में कामदेव को गोम्मट्ट कहा जाता है । अतएव बाहुवलि की मूर्ति का नाम भी गोमटेश्वर ही प्रचलित हो गया।
धातु-प्रतिमायें--अब तक की प्राप्त धातु-प्रतिमाओं में ईसा पूर्व एक शताब्दी के आस-पास की निर्मित तेइसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्राचीनतम मानी गयी है। यह बिहार राज्य के 'चौसा' नामक ग्राम से प्राप्त हुई है। कुछ प्रतिमाएँ कुषाण-काल से सम्बन्धित हैं। शेष गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल की हैं। पश्चिम तथा दक्षिण भारत में आकोटा, बसन्तगढ़, खम्भायत, बापटला, श्रवणवलेगोला. पडड कोट्टई आदि विविध स्थानों में जैन-धर्म की सहस्रों मूर्तियाँ बिखरी हैं। ये प्रतिमाएँ ठोस और पोली दोनों प्रकारों की हैं । मूर्ति-निर्माण में अधिकतर पीतल और ताम्बे का ही प्रयोग किया जाता था। सोने. चाँदी व विभिन्न रत्नों की भी मूर्तियाँ उपलब्ध हैं । धातु प्रतिमाओं में अभिलेखों का स्थान अधिकतर मूर्ति के पृष्ठ भाग में ही होता था। मूतियों की छाती पर श्रीवत्स, चौकी पर लाच्छन, शासन-देवताओं तथा अन्य महत्त्वपूर्ण अभिप्रायों का अंकन होता था।
AAAAAAAAAAAAALMAALANAS
आचार्यप्रवर अभिआचार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्याआनन्दका अनशन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org