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________________ मथरा का प्राचीन जैन-शिल्प १६५ और अनेक जैन-मूर्तियाँ (तीर्थंकरों की) तथा अन्य महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है। ये प्राप्त ध्वंसावशेष ८८ से १८९१ ई० तक लखनऊ व इलाहाबाद के पूरातत्त्व संग्रहालयों से भेजे गये हैं। जो शेष रह गये वह 'मथरा' नगर में ही गोदामों में सुरक्षित हैं। यदि यह प्राप्त सामग्री (भग्नावशेष आदि) एक ही स्थान पर एकत्रित रहती तो अध्ययन करने वालों को विशेष सुविधा होती। कुछ ही मास पूर्व "जैन-कला-प्रदर्शनी" उत्तर-प्रदेश राज्य-संग्रहालय द्वारा लखनऊ में आयोजित की गयी थी। जिसमें तीन कक्षों में ७८ जैन-कलात्मक वस्तुओं का प्रदर्शन था। प्रवेश द्वार पर 'जिनमस्तक' प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० का स्थापित था। (जे० १८६) । दाहिनी ओर के कक्ष में जैन-उपासना के प्रतीक देवता, जैन-कथाएँ आदि मूर्ति-विज्ञान की सामग्री थी । दूसरे कक्ष में 'पाषाण-कला' के सुन्दर नमूने थे जो उत्तर-प्रदेश और मध्य-भारत से प्राप्त हुए हैं । तीसरे कक्ष में 'धातु-मूर्तियाँ, चित्र, तथा हस्तलिखित ग्रन्थ' रखे गये थे। जैन-कला की यह अनुपम सामग्री 'ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक' की थी। इनमें 'जैन-तीर्थंकर के शीर्ष, जैन स्तूप के चित्र, वेदिका-स्तम्भ, तीर्थंकर युक्त आयागपट्ट शिला-फलक व शिलापट्ट, नेगमेषिन, ध्यानमुद्रा को तीर्थंकर-मूर्तियाँ, सर्वतोभद्र-प्रतिमाएं, धर्म-चक्र आदि अध्ययन की अनेक सामग्रियाँ थीं । ऐसी प्रदर्शिनियों का अपना औचित्य है । सर्व साधारण में ये कौतूहल पैदा करती हैं, और उनके अवलोकन से उनमें रुचि पैदा होती है, तथा धर्म के प्रति श्रद्धा भी उत्पन्न होती है। पुरातत्त्व-संग्रहालयों में विशेष रुचि के लोग ही जाते हैं। 'जैन-कला' पाषाण, धातु, ताडपत्र, कागज आदि विविध माध्यमों से विकसित हुई है। इसका प्रारम्भ 'सिन्धु-सभ्यता' तक पहुँच चुका है। मौर्य-काल से निर्विवाद रूप में क्रम-बद्ध सिलसिला तो उपलब्ध है ही। "जैन-कलाकारों" ने आयागपट्ट, चैत्य-स्तम्भ, चैत्यवृक्ष, स्तूप, मांगलिक-चिन्ह आदि प्रतीकों से प्रारम्भ कर खड़ी व बैठी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ, सर्वतोभद्रिका या चौमुखी-मूर्तियाँ, सरस्वती, अम्बिका, चक्रेश्वरी, नेगमेष, बलभद्र, क्षेत्रपाल आदि देवताओं की सुन्दर मूर्तियाँ गढ़ी हैं । 'जैन कला' का यह विशाल-क्षेत्र 'पाषाण-कला, धातुकला और वास्तुकला' में अनुपम निधि के रूप में प्राप्त है और नवीनशोधों द्वारा प्राप्त होता जा रहा है। _ 'पाषाण-कला' की अनुपम-निधि बिहार के 'लोहानीपुर' नामक स्थान से प्राप्त तीर्थकर प्रतिमा है । सम्भवत: वह पाषाण-कला की सर्व प्रथम कृति है । यह जैन-प्रतिमा है । ईस्वी सन् के कई शताब्दी पूर्व से जो यह परम्परा प्रारम्भ हुई, वर्तमान तक चली आ रही है । कई शताब्दियों पूर्व (सम्भवतः ६-७) उत्तर प्रदेश का 'मथुरा' नगर मूर्तिकला का विशिष्ट केन्द्र बन चुका था । उन दिनों वहाँ जैनों का एक विशाल स्तूप 'बौदू-स्तूप' के नाम से प्रख्यात था। इस स्तूप में अनेक छोटी बड़ी जैन-तीर्थंकर-प्रतिमाओं के अतिरिक्त अनेक जैन देव-देवियों की मूतियां भी स्थापित थीं। ये प्रतिमाएँ कुषाण-काल की मानी गयी हैं । अनेक तो पूर्व की भी लगती हैं। 'स्तूप से प्राप्त प्रतिमाएँ अचेल (नग्न) हैं। कायोत्सर्ग (खड़ी) अथवा पद्मासन में है । जैन-प्रतिमाओं के यही दो आसन होते हैं । छाती में श्री वत्स चिन्ह है। मस्तक के झलने वाले केश केवल तीथंकर ट IPIU maniaamirsuumaanasrinkinaJABALAJIAnamnainaaraaamMDABAALALAAMANARASMAAAJANABAJARAawasad a arddada सागाaHIVाचाfOERNET श्रीआनन्थाश्रीआनन्द अन्य UYG HINirma niawways Manavin wwwmarwanamosv Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211613
Book TitleMathura ka Prachin Jain Shilpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Jain
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Art
File Size2 MB
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