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मथुरा का प्राचीन जैन- शिल्प
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अर्थात् लगभग ५वीं या ६वीं शताब्दी ईसा पूर्व का होगा । बुल्हर, स्मिथ आदि प्राच्यविदों ने लिखा है कि उस समय स्तूप के वास्तविक निर्माणकर्ताओं के विषय में लोगों को विस्तृत ज्ञान रहा होगा । और वह जैन- स्तूप इतना प्राचीन माना जाने लगा कि उसके लिए देव-निर्मित कल्पना भी सम्भव हो सकी । यह तथ्य यह प्रमाणित करता है कि बौद्ध स्तूपों के निर्माण पूर्व से ही जैन स्तूपों का निर्माण बराबर होता रहा है । जैन स्तूपों के मध्य में बुबुदाकार बड़ा और ऊँचा थूहा होता था, और उसके चारों ओर वेदिका और चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार होते थे । उनके ऊपर हार्मिका और छत्रावली का विधान होता था। यह वेदिका सहित त्रिमेधियों पर बनाया जाता था । उसके चारों पार्श्वों और वेदिका स्तम्भों पर शालभंजिका मूर्तियों की रचना की जाती थी । इनके बहुत से नमूने कंकाली टीले से प्राप्त हुए हैं, जो लखनऊ संग्रहालय में स्थित हैं ।
जैनधर्म के विविध केन्द्र - ' मथुरा' से प्राप्त लेखों से यह सिद्ध होता है कि पुरुषों की अपेक्षा दानदाताओं में नारियों की बहुलता रही है। मथुरा के अतिरिक्त उत्तर भारत में जैन-धर्म के अन्य अनेक केन्द्र भी थे, जिनमें उत्तर गुप्त-काल तथा मध्य काल में जैन- कला का विस्तार होता रहा । वर्तमान बिहार व उत्तर-प्रदेश में अनेक स्थान तीर्थंकरों के जन्म, तपस्या, तथा निर्वाण के तीर्थ रहे हैं । अतः यह स्वाभाविक था कि इन स्थलों पर धर्म, कला तथा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की जाय, कौशाम्बी प्रभास, श्रावस्ती, कम्पिला, अहिक्षेत्र, हस्तिनागपुर, देवगढ़, राजगृह, वैशाली, मन्दारगिरि, पावापुरी ऐसे क्षेत्र थे 1
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उपरोक्त स्थलों से जैन-कला की जो प्रभूत सामग्री प्राप्त हुई है, उससे पता चलता है कि जैनधर्म ने अपनी विशेषताओं के कारण भारतीय लोक जीवन को कितना अधिक प्रभावित किया था । जैन धर्म की अजस्रधारा केवल उत्तर भारत तक ही सीमित नहीं रही, अपितु वह भारत के अन्य भागों को पूर्णरूपेण अपनाये हुए थी मध्य भारत में ग्वालियर, चन्देरी, सोनागिर, खजुराहो, अजयगढ़, कुण्डलपुर, जरखो, अहार, और रामटेक एवं राजस्थान तथा मालवा में चन्द्राखेड़ी, आबूपर्वत, सिद्धवरकूट तथा उज्जैन, प्रसिद्ध केन्द्र रहे हैं । इसी प्रकार गुजरात, सौराष्ट्र तथा बम्बई प्रदेश में गिरनार, वलभी, शत्रुंजय, अणहिल्ल (ल) दिलवाड़ा, एलोरा और वादामी, तथा दक्षिण में वेलूर, श्रमणवेलगोला, तथा हेलवीड, इत्यादि स्थलों में जैन मूर्ति - कला और चित्रकला दीर्घकाल तक अपना प्रभाव और अस्तित्त्व नाये रही । भारत के अनेक राजवंशों ने भी जैन-कला के उन्नत होने में योग दिया है । गुप्त शासकों के पश्चात् चालुक्यराष्ट्र, कलचुरि, गंग, कदम्ब, चोल, तथा पांड्य आदि वंशो के अनेक राजाओं का जैन-कला को संरक्षण और प्रोत्साहन पर्याप्त रूप में रहा है । इन वंशों में अनेक राजा जैन-धर्म के अनुयायी भी थे । सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल, अमोघवर्ष, अकालवर्ष तथा गंग- वंशीय मानसिंह (द्वितीय) का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं ।
में
भारतीय कला क्षेत्र का जो ह्रास हुआ, कला केन्द्र नष्ट हो गये, और कला
कला के अवशेष – मध्य काल के पश्चात् मुस्लिम काल उससे जैन - कला भी नहीं बच सकी। उत्तर भारत के उपर्युक्त सभी का प्रवाह जो अतिप्राचीन काल से अजस्र रूप में चला आ रहा था, अवरुद्ध हो गया । यद्यपि पश्चिम तथा दक्षिण भारत में इस झंझावात् के पूरे चपेट में न आ सकने के कारण वहाँ स्थापत्य और मूर्तिकला
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आचार्य प्रव श्री आनन्द अन्य 9 श्री आनन्दत्र ग्रन्थ
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