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भारतीय संस्कृति के प्रतीकों में कमल और अश्व
श्रीमती सुधा अग्रवाल, वाराणसी, (उ० प्र०) कमल निर्माण-शक्ति रचनाका प्रतीक है। पृथ्वीको प्रारम्भिक कल्पनामें पृथ्वीको चतुर्दल कमल अथवा चारपंखुड़ी वाला कमल माना गया है। कमलके बीच कणिका या बीज रूपमें सुमेरु पर्वतकी स्थिति है। ऐसा मानते हैं कि यहाँ विश्वकी अनेक वस्तुओं और भावोंके बीजोंका जन्म होता है, इसलिये इसे विश्वबीज मातृका भी कहते हैं।
कलाके अतिरिक्त, भारतीय धर्म और दर्शनोंमें भी प्रतीक रूपमें कमलका ज्यादा महत्त्व है। यह अथाह जलोंके ऊपर तैरते हुये प्राण या जीवनका चिन्ह है। सूर्यको किरणें ही कमलको जगाती हैं । ऋग्वेदमें सूर्यको ब्रह्मका प्रतीक कहा गया है। (ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः ऋ० २३४८) सूर्य प्राणका वह रूप है जो भूतोंमें समष्टिगत प्राण या जीवन का आवाहन करता है। यह विष्णुकी नाभिसे उत्पन्न होनेवाले बलोंका प्रतीक था जिनसे प्राणका संवर्धन होता है। इसी नाभिसे उत्पन्न कमल पर सृष्टिकर्ता ब्रह्माका विकास हुआ है (ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृष, गोपथ ब्रा०, १११। १६)। कमलके पत्ते या पुरइन बेलको सृष्टिकी योनि या गर्भाधानकी शक्ति कहा गया है। (योनि पुष्करं पर्णम्, श० ब्रा० ६।४।१७)। कहीं कमत विराट् मनका प्रतीक है तो कहीं व्यष्टिगत प्राण शक्तिका। भागवतमें सृष्टिका जन्म कमलसे माना गया है और संसारको भू-पद्मकोष कहा गया है। भागवत दो प्रकारकी सृष्टि मानते हैं-एक पद्मजा और दूसरी अण्डजा। पद्मजा जैसा कि नामसे ही स्पष्ट है, क्षीरशायी विष्णुकी नाभिसे होती है जबकि अण्डजा सष्टि हिरण्यगर्भसे। हिरण्यगर्भकी मान्यता वैदिक है और पद्मकी मान्यता भागवत । वेदके अनुसार पथ्वी पर अग्नि और धुलोकमें आदित्य-ये दो बड़े पुष्कर हैं। हरिण्यगर्भकी सृष्टि अग्नि पर और पद्मजाकी सष्टि जलों पर निर्भर है। हिरण्यगर्भ अग्नि और सोमके प्रतीक थे। पूर्णघटमें अण्डजा और पद्मजा-दोनों कल्पनाओंका समन्वय है। मातृकुक्षिसे उत्पन्न होनेवाले शिशुका प्रतीक कमल था। उत्पल, पुण्डरीक, कल्हार, शतपत्र, सहस्रपत्र, पुष्पक, पद्मक इत्यादि नामोंसे कमलका उल्लेख होता है कमलको सूरजमुखीके फुल्ले भी कहते हैं।
रूपककी भाषामें सारी जलराशिको स्त्री-शरीर और कमल योनिवत् माना गया है। शास्त्रीय आधार पर भी, योनिस्थ जरायुका आकार कमल पुष्पकी तरह माना गया है । पुष्पवती होनेका आधार यही कमल है। कमल-कुलिश साधना भी कमलके सृष्टिद्वार होनेका पोषक है। स्त्रीत्व और सृष्टिकी भावनाके कारण ही पौराणिक कल्पनामें इसे देवीका संसर्ग प्राप्त हआ। वेदोंमें देवी उपासना नहींके बराबर हैं। फिर भी, अग्निका उत्पत्तिस्थान कमल ही है। इसीका विकास बादमें पद्मा देवीके रूपमें हआ। यद्यपि ऋग्वेदमें किसी भी देवीकी आराधना नहीं है, फिर भी उसके सम्पूर्ण रूपमें सर्वप्रथम इसका उल्लेख है। देवीके दो नाम हैं-श्री और लक्ष्मी। राजगण धर्मपत्नीके अतिरिक्त राजलक्ष्मीसे परिणती माने जाते थे। पद्मादेवी विभिन्न संज्ञाओंसे जानी जाती थी जैसे पद्मसम्भवा, पद्मवर्णी, पद्मअरुण, पद्माक्षी, पद्मिनी, पद्मालिनी और पुष्करिणी इत्यादि । अतः लक्ष्मीकी रूपकल्पनाका आधार कमल ही होता है। इन्हीं
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