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साध्वी श्रीकुसुमवतीजी सिद्धान्ताचार्या भारतीय संस्कृति में संत का महत्त्व
भारतीय संस्कृति में सन्त का स्थान प्रमुख है. वही भारतीय संस्कृति का निर्माता है. चिरकाल से सन्तों का जो अविच्छिन्न प्रवाह चला आ रहा है, संस्कृति उसी की घोर तपश्चर्या का सरस सुफल है. सन्तजनों ने जगत् के लुभावने वैभव से विमुख होकर और अरण्यवास करके जो अमृत पाया, उसे जगत् में वितीर्ण कर दिया. उसी से संस्कृति की संस्थापना हुई, वृद्धि हुई. समय-समय पर उस संस्कृति में भी युगानुरूप संस्कार होते गए, किन्तु उसमें भी सन्तों की साधना का ही प्रमुख हाथ रहा. यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में ऐसी प्रचुर विशेताएँ हैं जो विश्व के अन्य देशों में दृष्टिगोचर नहीं होती. सन्त का जीवन आत्मलक्षी होने पर भी जन-जन के कल्याणार्थ होता है. उनका ज्ञान प्रसुप्त मानवजगत् को जागृत बनाने के लिये ही. वे दीपक के समान स्वयं भी प्रकाशमान हैं, और दूसरों को भी प्रकाश देते रहते हैं. संत के जीवन का लक्ष्य यद्यपि आत्मोत्थान होता है किन्तु उसके आत्मोत्थान की प्रक्रिया इस प्रकार की होती है कि उससे दूसरों का कल्याण अनायास ही होता रहता है. परोपकार एवं परोद्धार उसकी आत्म-साधना का ही एक अंग होता है. सन्त के जीवन का क्षण-क्षण, शरीर का कण-कण और मन का अणु-अणु परहितार्थ ही होता है.
सरवर तरुवर सन्त जन, चौथा वर्षे मेह
परोपकार के कारणे एता धारी देह ! समुद्र अपने पास अथाह जलराशि संचय करके रखता है वह अपने लिये नहीं, किन्तु जगत् में व्याप्त संताप को दूर करने और भूतल को शान्त करने के लिये ही. वृक्ष मधुर-मधुर फलों एवं फूलों से लदे रहते हैं, सो अपने लिये नहीं किन्तु दूसरों की क्षुधा को शान्त करने के लिये, दूसरों को सौन्दर्य और सुवास देने के लिये ही. इसी तरह सन्तजन भी अपने जीवन को परहित के लिये ही धारण करते हैं. जिस प्रकार अगरबत्ती दूसरों को सुगन्ध प्रदान करने के लिये अपने आपको समर्पित कर देती है, अपने सम्पूर्ण शरीर को अग्निदेव की भेंट करके भी अन्य को खुशबू लुटाती रहती है; सन्त का जीवन भी ठीक इसी प्रकार का होता है. वे अपने दुःखों एवं कष्टों की परवाह न करते हुए पर-हितार्थ ही अपना सर्वस्व लुटा देते हैं. सन्त का हृदय मक्खन के समान कोमल होता है. तुलसीदासजी ने कहा है :
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कविन पर कहिय न जाना ,
निज दुख द्रवहि सदा नवनीता, पर दुख द्रवहिं सन्त पुनीता ! सन्त का हृदय मक्खन के समान कोमल है, यह कहना ठीक है, किन्तु स्वदुःखकातर, बेचारा मक्खन परदुःखकातर सन्त के हृदय का मुकाबला नहीं कर सकता. अतएव मक्खन की उपमा सन्त के जीवन से संगत नहीं हो सकती. सन्त के प्राणों पर कैसा भी विषम संकट क्यों न आ पड़े, सहस्रों पीड़ाएं क्यों न उपस्थित हों, अपमान और तिरस्कार
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