________________ 262 ] वासुदेव 138 ई० से 166 ई० तक गुप्तकाल 320 ई० से 600 ई० तक मध्यकाल 600 ई० से 1200 ई. तक उपरोक्त काल की जिन 2 मूर्तियों का संग्रह है उनमें उनकी कला की कारीगरी तथा भाव भंगी को सहज समझ सकते हैं / यहां पर उनके दो एक उदाहरण दिये जाते हैं / यथा वहां की एक मूर्ति में आश्रम का दृश्य दरसाया गया है जिसमें ऊपर की पट्टी में तीन यक्ष कमल नालों से गुम्फित एक भारी माला को उठाये हुए हैं और निचले भाग में जटाधारी तपस्वी कबूतरों को चुगा रहे हैं / इतिहास विशारदों का मत है कि यह रोमक जातक का चित्रण है। इसी प्रकार का एक जैन आयाग पट्ट है जिसे लावण्य शोभिका नाम की गणिका की पुत्री ने दान में दिया था। इस शिला पट्ट पर बीच में दो स्तम्भों के बीच में एक स्तूप है जिसके दोनों बगल दो मुनि, दो सुपर्ण तथा दो यक्षिणी हैं। इसी प्रकार का एक तोरण भी है। जिसके अलंकृत भाग पर बुद्ध की पूजा के दृश्य दर्शाये गये हैं। उभय संग्रहालयों में धन कुबेर की भी एक 2 मूर्ति है जो कुषाण काल की सुन्दर कला की प्रतीक है। इनमें कैलाश पर बैठे हुए पासव पान करते कुबेर दिखाये गये हैं जिनके पीछे उनका अनुचर है और पास में कुबेर की स्त्री तथा उसकी सखी दिखाई गई है / यह कुषाण काल मथुरा कला का सुवर्ण युग रहा है। ई० प्रथम शताब्दी से तीसरी शताब्दी तक का समय मथुरा कला के उच्चतम वैभव का युग माना गया है जबकि यहां की कला धर्म और शासन की ख्याति दूर 2 तक थी। इस युग में जनता सर्वत्र विहार, स्तूप, चैत्य, देवकुल, पुण्य शाला उदयान (प्याऊ) आराम (बगीचा) आदि के निर्माण में करने में परम उत्साह का परिचय देती रही। इस काल की कला की एक अन्य मूर्ति है जिसमें दो कुषाण जातीय भद्व पुरुष माला और पुष्प लिये शिव लिङ्ग की पूजा करते दिखाये गये हैं / और जिनके बाई ओर अंगूर की बेल पर मोर बैठा है / इस मूर्ति से यह प्रत्यक्ष प्रकट होता है कि शक जाति के विदेशी पुरुषों ने भी ब्राह्मण धर्म के देवी देवताओं की पूजा उपासना की है। यहां भगवान बुद्ध की गुप्त कालीन अत्यन्त मनोहर मूर्ति है। इसी प्रकार पद्मासन लगाये जैन तीर्थङ्कर की मूर्ति है जो प्रभा मण्डल से पूर्ण अलंकृत है तथा हाथ समाधि मुद्रा में हैं / यह कला भी गुप्तकाल की है / इसी प्रकार से गुप्तकाल की कला का कौशल तथा पर्ण प्रादुर्भाव एक चतुर्भजी विष्णु भगवान की मूर्ति में देखने को मिलता है। भगवान के मुकूट में मकर का आभूषण है और मुक्ता दानो को मुख में दबाये हुए सिह है। इस मूति में अन्य प्राभूषणों को भी यथा स्थान दिखाया गया है। भरतपुर के अन्तर्गत प्राप्त मूर्तियों का भी रूप रंग कला कौशल बिल्कुल ऐसा ही है जैसा कि मथुरा कला की मूर्तियों का है / जिससे स्पष्ट होता है कि इनके कारीगर एक ही होंगे / मथुरा और भरतपुर समीप में हैं और है ब्रज मण्डल के अन्दर, अतः भाव साम्य होना स्वाभाविक है / ललित कलायें हमारी पूर्व प्राचीन सभ्यता और कला की द्योतक हैं, अतः ब्रज मण्डल ऐतिहासिक, पौराणिक तथा अन्वेषण कार्य के लिये अपना एक विशेष स्थान इतिहास में रखता है जहां पुरातत्व पारखियों को अभिरुचि के अनुसार प्रचुर सामग्री है जो उनकी शोध में पूरी सहायक हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org