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________________ 3 २ सपक्षसत्व, और ३ विपक्षासत्त्व । ध्यान रहे, यहाँ 'पक्षधर्मत्व' पक्षधर्मताके लिए ही आया है । प्रशस्तपादने जिस तथ्यको 'अनुमेयसम्बद्धत्व' शब्द से प्रकट किया है उसे न्यायप्रवेशकारने 'पक्षधर्मत्व' शब्द द्वारा बतलाया है । तात्पर्य यह कि प्रशस्तपादके मतसे हेतुके तीन रूपोंमें परिगणित प्रथम रूप 'अनमेयसम्बद्धत्व' है और न्यायप्रवेशके अनुसार 'पक्षधर्मत्व' । दोनोंमें केवल शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं । उत्तरकालमें तो प्रायः सभी भारतीय तार्किकोंके द्वारा तीन रूपों अथवा पाँच रूपोंके अन्तर्गत पक्षधर्मत्वका बोधक पक्षधर्मत्व या पक्षधर्मता पद ही अभिप्रेत हुआ है । उद्योतकर', वाचस्पति, उदयन, गंगेश, केशव " प्रभृति वैदिक नैयायिकों तथा धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट ' आदि बौद्ध तार्किकोंने अपने ग्रन्थोंमें उसका प्रतिपादन किया है | पर जैन नैयायिकोंने पक्षधर्मतापर उतना बल नहीं दिया, जितना व्याप्तिपर दिया है । सिद्धसेन, अकलंके', विद्यानन्दे रे, वादीर्भासह आदिने तो उसे अनावश्यक एवं व्यर्थ भी बतलाया है। उनका मन्तव्य १४ है कि 'कल सूर्यका उदय होगा, क्योंकि वह आज उदय हो रहा है, 'कल शनिवार होगा, क्योंकि आज शुक्रवार है', 'ऊपर देशमें वृष्टि हुई है, क्योंकि अधोदेशमें प्रवाह दृष्टिगोचर हो रहा है', 'अद्वैतवादीको भी प्रमाण इष्ट हैं, क्योंकि इष्टका साधन और अनिष्टका दूषण अन्यथा नहीं हो सकता' जैसे प्रचुर हेतु पक्षधर्मता के अभाव में भी मात्र अन्तर्व्याप्तिके बलपर साध्य के अनुमापक हैं । (ख) व्याप्ति : अनुमान का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य अंग व्याप्ति है। इसके होनेपर ही साधन साध्यका गमक होता है, उसके अभाव में नहीं । अतएव इसका दूसरा नाम 'अविनाभाव' भी है । देखना है कि इन दोनों शब्दों का प्रयोग कबसे आरम्भ हुआ है । अक्षपादके" न्यायसूत्र और वात्स्यायन के अविनाभाव । न्यायभाष्य में " मात्र इतना मिलता है १. उद्योतकर, न्यायवा० १।१।३५, पृष्ठ १२९, १३१ । २. वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० १।१।१५, पृष्ठ १७१ । ३. उदयन, किरणा०, पृष्ठ २९०, २९४ ॥ ४. त० चि० जागदी० टी० पृ० १३, ७१ । ५. केशव मिश्र, तर्कभा०, अनु० निरू० पृष्ठ ८८, ८९ । ६-७. धर्मकीर्ति, न्यायबि०, द्वि० परि० पृष्ठ २२ । ८. अर्चंट, हेतुबि० टी०, पृष्ठ २४ । ९. न्यायवि० १।१७६ । १०. सिद्धसेन, न्यायाव० का० २० । ११. न्यायवि० २।२२१ । १२. प्रमाणपरी० पृष्ठ ४९ । १३. वादीभसिंह, स्या० सि० ४।८७ । १४. अकलंक, लघीय० १ ३ | १४ | न्यायभाष्य में न व्याप्ति शब्द उपलब्ध होता है और न कि लिंग और लिंगीमें सम्बन्ध होता है अथवा वे सम्बद्ध १५. न्यायसू० १ ११५, ३४, ३५ । १६. न्यायभा० १।१।५, ३४, ३५ । १७. लिंगलिंगिनोः सम्बन्धदर्शनं लिंगदर्शनं चाभिसम्बध्यते । लिंगलिंगिनोः सम्बद्धयोर्दर्शनेन लिगस्मृतिरभि सम्बध्यते । न्यायभा० १।१।५ । Jain Education International - २६२ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211569
Book TitleBharatiya Vangamay me Anuman Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size3 MB
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