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________________ ज्ञानको उत्पन्न कर देता है । अतः अनुमानके लिए पचधर्मता और व्याप्ति इन दोनोंके संयुक्त ज्ञानकी आवश्यकता है । स्मरण रहे कि जैन तार्किकोंने' व्याप्तिज्ञानको ही अनुमानके लिए आवश्यक माना है, पक्षधर्मता के ज्ञानको नहीं; क्योंकि अपक्षधर्म कृत्तिकोदय आदि हेतुओंसे भी अनुमान होता है । पक्षधर्मता : जिस पक्षधर्मता का अनुमानके आवश्यक अंगके रूपमें ऊपर निर्देश किया गया है उसरा व्यवहार न्यायशास्त्र में कबसे आरम्भ हुआ, इसका यहां ऐतिहासिक विमर्श किया जाता है । arras वैशेषिकसूत्र और अक्षपादके न्यायसूत्रमें न पक्ष शब्द मिलता है और न पक्षधर्मता शब्द | न्यायसूत्र में साध्य और प्रतिज्ञा शब्दों का प्रयोग पाया जाता है, जिनका न्यायभाष्यकार ने प्रज्ञापनीय धर्मसे विशिष्ट घर्मी अर्थ प्रस्तुत किया है और जिसे पक्षका प्रतिनिधि कहा जा सकता है, पर पक्षशब्द प्रयुक्त नहीं है । प्रशस्तपादभाष्य में यद्यपि न्यायभाष्यकार की तरह धर्मी और न्यायसूत्रकी तरह प्रतिज्ञा दोनों शब्द एकत्र उपलब्ध हैं । तथा लिंगको त्रिरूप बतलाकर उन तीनों रूपोंका प्रतिपादन काश्यपके नामसे दो कारिकाएँ उद्धृत करके किया है ।" किन्तु उन तीन रूपों में भी पक्ष और धर्मपक्षता शब्दोंका प्रयोग नहीं है । हाँ, 'अनुमेय सम्बद्धलिंग' शब्द अवश्य पक्षधर्मका बोधक है । पर 'पक्षधर्म' शब्द स्वयं उपलब्ध नहीं है । पक्ष और पक्षधर्मता शब्दोंका स्पष्ट प्रयोग, सर्वप्रथम सम्भवतः बौद्ध तार्किक शंकरस्वामीके न्यायप्रवेश में हुआ है । इसमें पक्ष, सपक्ष, विपक्ष, पक्षवचन, पक्षधर्म, पक्षधर्मवचन और पक्षधर्मत्व ये सभी शब्द प्रयुक्त हुए हैं । साथमें उनका स्वरूप विवेचन भी किया है। जो धर्मीके रूपमें प्रसिद्ध है वह पक्ष है । 'शब्द अनित्य है' ऐसा प्रयोग पक्षवचन है । 'क्योंकि वह कृतक है' ऐसा वचन पक्षधर्म ( हेतु ) वचन है । 'जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, यथा घटादि' इस प्रकारका वचन सपक्षानुगम ( सपक्षसत्त्व) वचन है । 'जो नित्य होता है वह अकृतक देखा गया है, यथा आकाश' यह व्यतिरेक ( विपक्षासव ) वचन है । इस प्रकार हेतुको त्रिरूप प्रतिपादन करके उसके तीनों रूपोंका भी स्पष्टीकरण किया है । वे तीन रूप हैं - १ पक्षधर्मत्व, १. पक्षधर्मत्वहीनोऽपि गमक : कृत्तिकोदयः । अन्तर्व्याप्तिरतः सैव गमकत्वप्रसाधनी ।। -- वादीभसिंह, स्या० सि० ४।८३-८४ । २. साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा । - अक्षपाद, न्यायसू० १।१।३३ | ३. प्रज्ञापनीयेन धर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्य परिग्रहवचनं प्रतिज्ञा साध्यनिर्देश: अनित्यः शब्द इति । -- वात्स्यायन, न्यायभा० १।१।३३ तथा १।१।३४ । ४. अनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा । प्रतिपिपादयिषितधर्मविशिष्टस्य धर्मिणोऽपदेश - विषयमापादयितुमुद्देशमात्रं प्रतिज्ञा । ''''। -- प्रशस्तपाद, वैशि० भाष्य पृष्ठ ११४ । ५. यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्ध च तदन्विते । तदभावे च नास्त्येव तल्लिगमनुमापकम् ॥ -- वही, पृष्ठ १०० ॥ ६. प्रश० भा०, पृ० १०० । ७. पक्ष: प्रसिद्धो धर्मी ....। हेतुस्त्रिरूपः । किं पुनस्त्रैरूप्यम् ? पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षे चासत्त्वमिति । .... तद्यथा । अनित्यः शब्द इति पक्षवचनम् । कृतकत्वादिति पक्षधर्मवचनम् । यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टं तथा घटादिरिति सपक्षानुगमवचनम् । यन्नित्यं तदकृतकं दृष्टं तथाऽऽकाशमिति व्यतिरेकवचनम् । - शंकरस्वामी, न्यायप्र० पृष्ठ १-२ । Jain Education International २६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211569
Book TitleBharatiya Vangamay me Anuman Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size3 MB
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