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________________ साधन सावारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ सम्A RANANCIEWEramiAMSUTORamesawerParanam ammeerNASHOWKENA R omancewanamaARMANELEADELIRBANEE474 HOLAR न होने का अध्यवसाय (विचार) करना तथा भविष्य में भी इनका वियोग न हो ऐसा निरन्तर सोचना 'मनोज्ञ-अवियोगचिन्ता' नामक द्वितीय आर्तध्यान है। (३) आतंक (रोग) वियोगचिन्ता--वात, पित्त और कफ के प्रकोप से शरीर में उत्पन्न होने वाले महा भयंकर सोलह रोगों (कण्ठमाला, कोढ़, राजयक्ष्मा-क्षय, अपस्मर-मुर्छा, मृगी, नेत्र-रोग, शरीर की जड़ता, लूला, लंगड़ा, कुब्ज, कुबड़ा, उदर रोग-जलोदरादि, मूक, सोजन शोथ, भस्मक रोग, कंपन, पीठ का झुकना, श्लीपद (पैर का कठन होना), मधुमेह-प्रमेह) में से किसी भी रोग का उदय होने पर ।। मन व्याकुल हो जाता है। व्याकुलता को दूर करने के लिए सतत चिन्तित रहना 'आतंक-वियोगचिन्ता' नामक तीसरा आर्तध्यान है । मनुष्य के शरीर में ३॥ करोड़ रोम माने जाते हैं। उनमें से प्रत्येक रोम पर पौने दो रोग माने जाते हैं। जब तक सातावेदनीय का उदय रहता है तब तक रोगों की अनुभूति नहीं होती । जैसे ही असातावेदनीय कर्म का उदय होता है कि शरीर में स्थित रोग का विपाक होता है। (४) भोगच्छा अथवा निदान-पाँचों इन्द्रियों में दो इन्द्रियाँ कामी (कान-आँख) हैं जबकि शेष । तीन इन्द्रियाँ (रसन, घ्राण, स्पर्शन) भोगी हैं। इन पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श । इन इन्द्रियों के द्वारा काम-भोगों को भोगने की इच्छा करना ही 'भोगेच्छा' नामक चौथा आर्त्तध्यान है। इसका दूसरा भी नाम है, जिसे 'निदान' कहते हैं। जप-तप के फलस्वरूप में देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की ऋद्धि सिद्धि मांगना एवं इन्द्र, विद्याधर, आधिपत्य, धरणेन्द्र के भोग, स्वर्ग सम्पदा, संसार वैभव, देवांगना का सुख विलास, मान, सम्मान, सत्कार, कीर्ति, कामना तथा दूसरे के विनाश की भावना करना, कुल विनाश की इच्छा करना ये सब 'निदान' आर्तध्यान में आता है। आत्तध्यान के लक्षण आगम कथित आर्तध्यान के चार लक्षण निम्नलिखित हैं :-- (१) कंदणया --ऊँचे स्वर से रोना, चिल्लाना, रुदन करना, आक्रन्दन करना। (२) सोयणया- शोक -चिन्तामग्न होना, खिन्न होना, उदास होकर बैठना, पागलवत् कार्य करना, दीनता भाव से आँख में आँसू लाना।। (३) तिप्पणया-वस्तुविशेष का चिन्तन करके जोर-जोर से रोना, वाणी द्वारा रोष प्रकट करना, क्रोध करना, अनर्थकारी शब्दोच्चारण करना, क्लेश या दयाजनक शब्द बोलना, व्यर्थ की बात बनाना आदि। (४) परिदेवणया--माता, पिता, स्वजन, पुत्र, मित्र, स्नेही की मृत्यु होने पर अधिक विलाप करना, हाथ पैर पछाड़ना, हृदय पर प्रहार करना, बालों को उखाड़ना, अंगों को पछाड़ना, महान् अनथकारी शब्दोच्चारण करना आदि । - इन लक्षणों के अतिरिक्त आगमेतर ग्रन्थों में आर्तध्यान के और भी लक्षण मिलते हैं । जैसे बात बात में शंका करना, भय, प्रमाद, असावधानी, क्लेशजन्य प्रवृत्ति, ईर्ष्यावृत्ति, चित्तभ्रम, भ्रांति, विषय सेवन उत्कंठा, कायरता, खेद, वस्तु में मूर्छाभाव, निन्दकवृत्ति, शिथिलता, जड़ता, लोकैषणा, धनेषणा, भोगैषणा आदि । ये आर्तध्यान के आठ भेद हैं। TANT मम+tt RA fituatuttituttituttitut INTERENECESARSANE मना ३४४ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग . I nternational irryn www.jaine
SR No.211568
Book TitleBharatiya Vangamaya me Dhyan Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanaji Sadhvi
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages31
LanguageHindi
ClassificationArticle & Meditation Yoga
File Size4 MB
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