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________________ 400 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय -0--0--0-0-0-0-0--0-0-0 को उच्च भावनाओं की ओर आकर्षित करती हैं. इस संघर्ष में यदि आत्मा निर्बल हुई तो अनिष्ट वृत्तियों की जीत हो जाती है और उसका विकास रुक जाता है और यदि आत्मा प्रबल हुई तो सात्विक वृत्तियों की विजय होती है. इस प्रकार के उतार-चढ़ाव को आध्यात्मिक-साहित्य में 'वृति-संघर्ष' अथवा 'भावना-युद' कहते हैं. यह घटना आत्मा के लिये परम सौभाग्य रूप मानी जाती है. इसे जैन-शास्त्रों में अपूर्वकरण संज्ञा दी गई है. अनादि काल से परिभ्रमण करते हुए जीव के लिये यह प्रथम ही प्रसंग होता है और इसीलिये शास्त्रकारों ने इसका 'अपूर्वकरण' नाम प्रस्थापित किया है. अपूर्वकरण की स्थिति में अवस्थित आत्मा की भावना प्रशस्त हो जाती है, और जब उसकी प्रगति विकास की ओर ही रहती है तो उस विकासोन्मुख प्रवृत्ति के लिये जनदर्शन में 'यथा-प्रवृत्ति-करण' नाम प्रदान किया गया है. जब आत्मा में 'अपूर्वकरण' तथा 'यथाप्रवृत्तिकरण' का उदय हो जाता है, तब आत्मा में रही हुई मोह की गांठ आत्यंतिक रूप से छूट जाती है, शैतान वृत्तियों का नाश हो जाता है. आत्मा की ऐसी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थिति के लिये जैनाचार्यों ने अनिवृत्तिकरण नाम निर्धारित किया है. ऊपर उल्लिखित अन्तरात्म-भाव से परमात्म-भाव तक पहुँचने के लिये किसी उत्तमोत्तम आत्मा को तो बहुत थोड़ा समय लगता है और किसी-किसी आत्मा को बहुत अधिक समय भी लग जाता है. मोक्षगामी एवं मोक्षगत आत्माओं के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण विद्यमान हैं, जिनसे विदित होता है कि कोई-कोई भव्य आत्मा तो कुछ घन्टों, महीनों अथवा वर्षों में ही परमात्म-भाव को प्राप्त कर लेते हैं. जब कि अनेक आत्मा संख्यात वर्षों में, असंख्यात वर्षों में अथवा अनंत काल में परमात्म भाव को प्राप्त कर पाते हैं। गजसुकुमार, मरुदेवी, भरतचक्रवर्ती, एलायचीकुमार, अर्जुनमाली आदि के दृष्टान्त जैन-आगमों में उपलब्ध हैं, जो प्रथम बात का समर्थन करते हैं. द्वितीय बात के समर्थन के लिये ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि के उदाहरण देखे जा सकते हैं. इस प्रकार आत्मवाद के विकास के सम्बन्ध में यह एक मननीय एवं चिंतनीय-सुबोध पाठ है. (7) प्रात्मवाद का तारतम्य वर्णन में एवं उसकी व्याख्या करने में भाषा-भेद अवश्य पाया जाता है, फिर भी उसके अस्तित्व से कोई इन्कार नहीं करता. (2) आत्मा के स्वरूप, प्रदेशों, तथा अमरता तथा पुनर्जन्म के सम्बन्ध में प्रयुक्त की गई विवेचनशैली में भिन्नता होने पर भी सभी भारतीय दर्शनों का आत्मवाद सम्बन्धी धरातल एक जैसा ही है. (3) 'आत्मा सांसारिक बंधनों से परिमुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करती है, एवं सम्पूर्ण ईश्वरीय शक्ति के रूप में इसका संविकास होता है.' इस विषय में भी सभी भारतीय दर्शनों में एकता दिखाई देती है. (3) ईश्वर-स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय-दर्शनों का दृष्टिकोण उलझा हुआ प्रतीत होता है यह अस्पष्ट एवं कल्पनाओं से भरा हुआ है. फिर भी ईश्वर की सत्ता का स्वीकार सभी भारतीय दर्शन करते हैं. - (5) सभी भारतीय दर्शन प्रत्यक्ष रूप से अथवा परोक्ष रूप से यह वर्णन अवश्य करते हैं कि अज्ञेय स्वरूप वाले 圖 圖 Jain Educon imem or Private & l lose only www.ainelibrary.org
SR No.211557
Book TitleBharatiya Darshano me Atmavad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Soul
File Size885 KB
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