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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ में 'देह का आत्यन्तिक उच्छेद' मोक्ष माना गया है। एक मत में शरीर सम्बन्ध के विलय को और दूसरे मत में शरीर के ही उच्छेद को, मोक्ष का कारण माना गया है। शरीर का उच्छेद हो जाने पर, शरीर सम्बन्धों का उच्छेद हो जाना स्वाभाविक है । अतः दोनों मतों में कोई विशेष फर्क नहीं है।
सांख्यदर्शन में आत्म-चिन्तन सांख्यदर्शन में मूलतत्त्व तीन हैं-व्यक्त, अव्यक्त, और ज्ञ। इनमें से 'व्यक्त' और 'अव्यक्त' जड़ हैं। केवल 'ज्ञ' ही चेतन है । 'ज्ञ' को 'पुरुष' भी कहा गया है। परोक्ष होने के कारण 'पुरुष' को न तो बद्धि से जाना जाता है, न ही उसका प्रत्यक्ष होता है। यह त्रिगुणातीत और निलिप्त है। अतः इसकी सत्ता/अस्तित्व की सिद्धि करने के लिये किसी सहयोगी 'लिंग' के न होने से, अनुमान द्वारा भी इसका ज्ञान नहीं किया जा सकता । सांख्यों की मान्यता है कि मात्र 'शब्द'/'आगम' ही इसके अस्तित्व की सिद्धि में सहयोगी है । सांख्य शास्त्रों में 'ज्ञ' के अस्तित्व सम्बन्धी अनेकों प्रमाण मिलते हैं। जिन्हें देखते हुए यह कहा जा सकता है कि 'ज्ञ' की सिद्धि आगम/आप्तवचन से हो जाती है। सांख्यों का यह पुरुष अहेतुमान्, नित्य, सर्वव्यापी, त्रिगुणातीत और निष्क्रिय है ।
पुरुष की अनेकता/बहुत्व के विषय में, विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। ईश्वरकृष्ण 'तथा च पुमान्”, पद के द्वारा इसके ‘एकत्व' और 'प्रकृति के साथ सादृश्य' प्रकट करते हैं। इस पद के भाष्य में गौड़पादाचार्य ने भी 'पुमानप्येकः' पद के द्वारा ज्ञ/पुरुष का एकत्व सिद्ध किया है। जबकि अन्य टीकाकारों ने पुरुष का 'बहत्व' सिद्ध किया है। इसका मुख्य आधार 'पुरुषबहुत्वं सिद्ध 48 पद जान पड़त इस सन्दर्भ में जो विशेषण-शब्द जनन-मरण-करण आदि प्रयोग किये गये हैं, उनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पुरुष के बहुत्व का यह वर्णन, उसके शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा से नहीं किया गया है। बल्कि, सांसारिक/बद्ध पुरुष की वहाँ पर अपेक्षा जान पड़ती है ।
___बद्ध पुरुष को अनेकता-सांख्यदर्शन में शुद्ध स्वरूप वाला पुरुष/ज्ञ एक ही है। किन्तु, बद्ध सांसारिक पुरुष बहुत हैं । इन सांसारिक पुरुषों के जन्म-मृत्यु, और इन्द्रिय-समूह के सत्ता/स्वरूप भिन्नभिन्न रूपों में नियत पाये जाते हैं। इन सब की अलग-अलग ढंग की प्रवृत्ति, और सत्त्व-रज-तम रूप त्रैगुण्य की विषमता, यह सिद्ध करते हैं कि बद्ध/सांसारिक पुरुषों की विविधता/बहत्व है । यदि बद्ध पुरुषों में भी एकत्व मान लिया जाता है, तो किसी एक पुरुष के जन्म लेने पर, सबको जन्म ले लेना चाहिए; एक के मर जाने पर सबको मर जाना चाहिए। किसी एक के अन्धा/बहिरा हो जाने पर, सबको अंधा/बहिरा हो जाना चाहिए । लोक व्यवहार में ऐसा दृश्य दिखाई नहीं देता; जिससे, यही सिद्ध होता है कि पुरुष-बहुत्व का विश्लेषण, उसकी संसारावस्था को लक्ष्य करके ही सांख्यदर्शन किया गया है।
'न' के बहुत्व में आपत्तियाँ-कुछ विद्वान्, हठपूर्वक यह स्वीकार करते हैं कि सांख्यदर्शन में 'ज्ञ'। 'शुद्धात्मा' का ही बहुत्व स्वीकार किया गया है। इन्हें विचार करना चाहिए कि शुद्ध स्वरूप 'ज्ञ' मुक्त अवस्था वाला होता है । वह, न तो कभी जन्म लेता है, न ही मरता है। इसलिए, उसको अंधा/बहिरा होने, या किसी कार्य में संलग्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। न ही उसमें सत्त्व-रज-तम आदि गुणों की
46. प्रकरणपञ्चिका-पृ. 156 48. सांख्यकारिका-18
47. सांख्यकारिका-11 49. वही-18
भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | ११
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