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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त
या
व्यक्ति चार्वाक-ग्रन्थों में, जैन-आगमों में और बौद्ध-पिटकों में विश्वास नहीं करते, वे भी नास्तिक ही हैं। इस प्रकार भारत का कोई भी दर्शन आस्तिक नहीं रहेगा।
यदि यह कहा जाए कि ईश्वर को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, और इस दृष्टि से चार्वाक, जैन और बौद्ध नास्तिक कहे जाते हैं । तब इसका अर्थ यह होगा, कि सांख्य और योग तथा वैशेषिक दर्शन भी नास्तिक परम्परा में परिगणित होंगे । क्योंकि ये भी ईश्वर को स्वीकार नहीं करते । वेदों का सबसे प्रबल समर्थक मीमांसा-दर्शन भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता तब वह भी नास्तिक कहा जाएगा। अतः आस्तिक और नास्तिक के आधार पर भारतीय-दर्शनों का विभाग करना यह एक भ्रम परिपूर्ण धारणा है।
वास्तव में भारतीय-दर्शनों का विभाग दो रूपों में होना चाहिए-वैदिक-दर्शन और अवैदिकदर्शन । वैदिक-दर्शनों में पड्दर्शनों की परिगणना हो जाती है, और अवैदिक-दर्शनों में चार्वाक, जैन और बौद्ध-दर्शन आ जाते हैं। इस प्रकार भारतीय-दर्शन-परम्परा में मुल में नव दर्शन होते हैं--- चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांस्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदान्त । ये नव दर्शन भारत के मूल दर्शन हैं । कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है, कि अवैदिक-दर्शन भी षड् हैं—चार्वाक, जैन, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक । इस प्रकार वैदिक-परम्परा के दर्शन भी छह हैं, और अवैदिक-दर्णन भी छह होते हैं । इस प्रकार भारत के मूल दर्शन द्वादश हो जाते हैं।
न्याय और वैशेषिक-दर्शन में कुछ सैद्धान्तिक भेद होते हुए भी प्रकृति, आत्मा और ईश्वर के विषय में दोनों के मत समान है। कालक्रम से इनका एकीभाव हो गया और अब इनका सम्प्रदाय न्याय-वैशेषिक कहा जाता है। सांख्य और योग की भी प्रकृति और पुरुष के विषय में एक ही धारणा है । यद्यपि सांख्य निरीश्वरवादी है, और योग ईश्वरवादी है। अतः कभी-कभी इनको एक साथ सांख्य-योग कह दिया जाता है । मीमांसा के दो सम्प्रदाय हैं जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य कुमारिल भट्ट हैं, और दुसरे के आचार्य प्रभाकर। इनको क्रमशः भट्ट सम्प्रदाय और प्रभाकर सम्प्रदाय कहा जाता है । वेदान्त के भी दो मुख्य सम्प्रदाय हैं जिनमें से एक के प्रवर्तक आचार्य शंकर हैं और दूसरे के आचार्य रामानुज । शंकर का सिद्धान्त अद्वैतवाद अथवा केवलाद्वैतवाद के नाम से | विख्यात है, और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से । वेदान्त के कुछ अन्य छोटे-छोटे सम्प्रदाय भी हैं। उन सभी का समावेश भक्तिवादी-दर्शन में किया जा सकता है । वेदान्तपरम्परा के दर्शनों में मीमांसा-दर्शन को पूर्व-मीमांसा और वेदान्त-दर्शन को उत्तर-मीमांसा भी कहा जा सकता है। इस प्रकार इन विभागों में वैदिक-परम्परा के सभी सम्प्रदायों का समावेश आसानी से किया जा सकता है।
बौद्ध-दर्शन परिवर्तनवादी दर्शन रहा है। वह परिवर्तन अथवा अनित्यता में विश्वास करता है, नित्यता को वह सत्य स्वीकार नहीं करता। बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय हैं-उनके वैभाषिक और सौत्रान्तिक सर्वास्तिवादी हैं। इन्हें बाह्यार्थवादी भी कहा जा सकता है । क्योंकि ये दोनों सम्प्रदाय समस्त बाह्य वस्तुओं को सत्य मानते हैं। वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी हैं। इनका मत यह है कि बाह्य वस्तु क्षणिक हैं, और उनका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । सौत्रान्तिक बाह्यानुमेयवादी हैं। इनका मत यह है, कि बाह्य पदार्थ जो क्षणिक हैं, प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं, बल्कि मन में उनकी जो चेतना उत्पन्न होती है, उससे उनका अनुमान किया जाता है। योगाचार सम्प्रदाय विज्ञानवादी है। इसका मत यह है कि समस्त बाह्य वस्तु मिथ्या हैं, और चित्त में जो कि विज्ञान सन्तान मात्र है, विज्ञान उत्पन्न होते हैं, जो निरावलम्बन हैं। योगाचार आलय-विज्ञानवादी हैं। माध्यमिक सम्प्रदाय का मत यह है कि न बाह्य वस्तुओं की सत्ता है, और न आन्तरिक विज्ञानों की । ये दोनों ही संवृति मात्र हैं । तत्त्व
आचार्यप्रवआभनआचार्यप्रवभिनय
आनन्दा अन्धाश्रीआनन्दन
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