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________________ 251 / श्री वासुदेव शरण अग्रवाल निश्चय, निर्माण की विधि, शैली, तिथिक्रम, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, और सर्वोपरि उस कला वस्तु का प्रतीकात्मक अर्थ जैसे प्लेटो के सौन्दर्यतत्व में, वैसे ही भारतीय सौन्दर्यतत्व में भी कला का सर्वोपरि महत्व है / बाह्य रुप का भी निजी महत्व है किन्तु वह भाबों की अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। रूप को शरीर कहा जाय अर्थ कला का प्रारण है। कालिदास ने शब्द या रूप को जगन्माता और अर्थ को जगत्पिता कह कर कला की सर्वाधिक अभ्यर्थना की है-- वागर्थावित सम्पृतौ / वागर्थप्रतित्तये जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ। जो जगत के माता पिता हैं वे ही कला के अर्थ और रूप के जनक जननी हैं। अर्थ अमृत लोक का और रूप मर्त्य जगत का प्रतिनिधि है। दोनों ही भगवान् विष्णु के दो रूप हैं। एक परम रूप और दूसरे को विश्व रूप कहा गया है। (विष्णु पुराण 67 / 54) समस्त विश्व के नाना पदार्थों के मूल में अर्थतत्व ही नियामक है जिसे भावना कहते हैं अर्थात् मनुष्यों के हृदय में जो मनोभाव रहते हैं वे ही कला और साहित्य में मूर्त होते हैं / यह भावना तीन प्रकार की होती है (1) ब्रह्म भावना-जिसका तात्पर्य है विश्वात्मक परम एक और अभिन्न मनोभाव जो ब्रह्म के समान निरपेक्ष और सर्वोपरि है / वही तो सब रसों और मनोभावों का मूल स्रोत है। (2) कर्मभावना-उच्चतम देवों से लेकर मनुष्य एवं इतर प्राणियों तक के जो प्राकृत मनोभाव हैं वे इसके अंतर्गत आते हैं। उभय भावना : इसमें विश्वात्मक ब्रह्म तत्व और मानुषी कर्म इन दोनों का संयोग आवश्यक है। केवल कर्मभावना पर्याप्त नहीं है। यदि कला की सीमा वहीं तक हो तो कला का सोता सूख जायेगा / और वह चित्रों के समाजन निर्जीव ठठरी रह जायेगी। कला प्राणवन्त तभी बनती है जब उसके रूपात्मक पार्थिव शरीर में भावात्मक देवांश प्रवेश करता है / कलात्मक रूप में भावात्मक देव की प्रतिष्ठा ही कला की सच्ची प्राण प्रतिष्ठा है। मानुषी कर्म के साथ ब्रह्म ज्ञान के सम्मिलन से ही राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, बनते हैं जो कला के सच्चे आराध्य हैं। कला के रूपों के मूल में छिपे हए सुक्ष्म अर्थ का परिचय प्राप्त करने से कला की सौन्दर्यानुभूति पूर्ण और गम्भीर बनती है यही भारतीय मत है / अध्यात्म के बिना केवल सौन्दर्य या चारुतत्व सौभाग्य विहीन है। उस अवस्था में कला की स्थिति उस स्त्री के समान है जो अपना पति न पा सकी हो / केवल रूप को कवि ने निन्दित कहा है किन्तु मध्यात्म अर्थ के साथ वही पूजनीय बन जाता है जैसे विश्वरूपों के भीतर जो भगवान का अध्यात्म रूप है उसीके ध्यान से प्रात्मशुद्धि होती है। जैसे अग्नि घर में प्रविष्ट होकर उसे दग्ध कर देता है वैसे ही कला के आधार से चित्त में जो भाव अनुप्राणित या या प्रेरित होते हैं उनसे मन का मैल हट जाता है---- तद् रूपं विश्वरूपस्य तस्य योग युजानृप, चिन्त्यमात्य विशुद्धयर्थ सर्व किल्विष नाशनम् / यथाग्नि रुद्धत शिखः कक्षंदहति सानिलः, तथा चितस्थितोविष्णुः योगिनां सर्व किल्विपम् / / (विष्णु पुराण 617173-74 कला कार और रसिक दोनों केवल ध्यान और मगन की शक्ति से ही कला की चारुता का पूरा फल प्राप्त कर सकते है / प्रत्येक मूर्ति का आदि अन्त धार्मिक या प्राध्यात्मिक अभिव्यक्ति में है अर्थात् वह देवतत्व की प्रतीक मात्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211539
Book TitleBharatiya Kala ke Mukhya Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev S Agarwal
PublisherZ_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf
Publication Year1971
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Art
File Size7 MB
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