________________ चतुर्य खण्ड / दशवकालिकसूत्र के इन शब्दों से यही नीति परिलक्षित होती है। वैदिक परम्परा में भी सामूहिकता अथवा संगठन की महत्ता स्वीकृत की गई है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे-कलियुग में संगठन में ही शक्ति है। इन शब्दों में सामूहिकता की ही नीति मुखर हो रही है। अाधुनिक युग में प्रचलित शासनप्रणाली-प्रजातन्त्र का प्राधार तो सामूहिकता है / ही। प्रजातन्त्र का प्रमुख नारा है United we stand divided we fall. -सामूहिक रूप में हम विजयी होते हैं और विभाजित होने पर हमारा पतन हो जाता है। सामूहिकता की नीति देश, जाति, समाज सभी के लिए हितकर है। स्वहित और लोकहित स्वहित और लोकहित नैतिक चिन्तन के सदा से ही महत्त्वपूर्ण पहल रहे हैं। विदुर" और चाणक्य'२ ने स्वहित को प्रमुखता दी है और कुछ अन्य नीतिकारों ने परहित अथवा लोकहित को प्रमुख माना है, कहा है-अपने लिए तो सभी जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीए, जीवन उसी का है। यहाँ तक कहा गया है-जिस जीवन में लोकहित न हो उसकी तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार की परस्पर विरोधी और एकांगी नीति-धाराएँ नीतिसाहित्य में प्राप्त होती हैं। लेकिन भगवान महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना। इसका कारण यह है कि भगवान की दृष्टि विस्तृत अायाम तक पहुंची हई थी। उन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया / स्वहित का अर्थ स्वार्थ ओर लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया। अपि तु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना / इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता-जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके। उन्होंने अपने साधनों को स्व-पर कल्याणकारी बनने का सन्देश दिया। इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया। श्रमणजन अपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं। ____ भगवान् की वाणी लोकहित के लिए हैं। 5 पांचों महाव्रत स्वहित के साथ लोकहित के लिए भी हैं।' 6 अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है।'७ णमोत्थुणं' सूत्र में तो भगवान् 11. विदुरनीति 16 12. चाणक्यनीति 116; पंचतन्त्र 1387 13. सुभाषित, उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ. 208 14. वही, पृष्ठ 205 15. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्कन्ध 2, प्र. 1, सू. 21 16. प्रश्नव्याकरणसुत्र, स्कन्ध 2, अ. 1, सू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org