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भगवान महावीर की नीति
0 उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म.
जिस प्रकार धार्मिक जीवन का आधार आचार है, उसी प्रकार व्यावहारिक जीवन की रीढ़ नीति है और यह भी तथ्य है कि विना नैतिक जीवन के धार्मिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस दृष्टि से नीति, धर्म का आधार है। यही कारण है कि प्रत्येक धर्मप्रवर्तक, धर्मोपदेशक और धर्मसुधारक ने धर्म के साथ नीति का भी उपदेश दिया, जन साधारण को नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा दी।
हाँ, यह अवश्य है कि धर्म, धर्म के मूल्य, धर्म के सिद्धान्त स्थायी हैं, सदा समान रहते हैं। उनमें देश-काल की परिस्थितियों के कारण परिवर्तन नहीं होता; जैसे अहिंसा धर्म है, यह संसार में सर्वत्र और सभी कालों में धर्म ही रहेगा । किन्तु नीति, समय और परिस्थिति सापेक्ष है, इसमें परिवर्तन आ सकता है। जो नीतिसिद्धान्त भारतीय परिस्थितियों के लिए उचित हैं, आवश्यक नहीं कि वे पश्चिमी जगत् में भी मान्य किये जाएँ, वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार नैतिक सिद्धान्त भिन्न प्रकार के भी हो सकते हैं।
व्यावहारिक जीवन से प्रमुखतया सम्बन्धित होने के कारण नीतिसिद्धान्तों में परिवर्तन आ जाता है।
जैन नीति के सिद्धान्त यद्यपि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा निश्चित कर दिये गये थे और वे दीर्घकाल तक चलते भी रहे थे; किन्तु उन सिद्धान्तों को युगानुकूल रूप प्रदान करके भगवान महावीर ने निश्चित किया और यहो सिद्धान्त अब तक प्रचलित हैं। इसी अपेक्षा से इन्हें 'भगवान महावीर की नीति' नाम से अभिहित करना समीचीन होगा।
भगवान् महावीर
भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड ग्राम में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशलादेवी की कुक्षि से ईसा पूर्व ५९९ में हुआ था। पापने ३० वर्ष गृहवास में बिताये, तदुपरान्त श्रमण बने। १२ वर्ष तक कठोर तपस्या की, केवलज्ञान का उपार्जन किया और फिर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। ३० वर्ष तक अपने वचनामृत से भव्य जीवों के लिए कल्याण मार्ग बताया और प्रायुसमाप्ति पर ७२ वर्ष की अवस्था में कार्तिकी अमावस्या के दिन निर्वाण प्राप्त किया।
वे जैन परम्परा के चौवीसवें और अन्तिम तीर्थंकर हैं। वर्तमान समय में उन्हीं का शासन चल रहा है।
भारतीय और भारतीयेतर सभी धर्मप्रवर्तकों, उपदेशकों से भगवान् महावीर का उपदेश विशिष्ट रहा। उपदेश की विशिष्टता के कारण ही उनके द्वारा निर्धारित नीति में भी ऐसी
को संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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