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भगवान् महावीर
और उनके द्वारा संस्थापित नैतिक मूल्य
Jain Edernational
- डॉ० रामजीराय, आरा
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जैन दर्शन के अध्येता की दृष्टि में भगवान् महावीर की मौलिक देन है - अनेकान्तवाद । इसलिए जहाँ कहीं भी प्रसंग आया है, इस विषय पर विशदता से प्रकाश डाला गया है । वैचारिक क्षेत्र में अनेकान्तवाद एक महत्वपूर्ण तत्व है, इसे हम किसी भी स्थिति में नकार नहीं सकते । किन्तु इस सार्वभौम तथ्य के अतिरिक्त भगवान् महावीर ने एक ऐसा भी तत्त्व दिया था, जो आचार क्षेत्र में गृहस्थ समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी है । सामान्यतः हर दर्शन प्रणेता अपने अनुयायियों के लिए आचार का निरूपण करता है । किन्तु गृहस्थ समाज के लिए अतिरिक्त रूप से नैतिकता का चिन्तन देने वाले भगवान् महावीर ही थे । वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में भगवान् महावीर का वह चिन्तन जन-जन को नया आलोक देने वाला है ।
मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव समाज में 'कुछ ऐसी वृत्तियाँ पनपने लगीं जो मनुष्य के आचार को खतरा पहुँचाने वाली थीं । इन वृत्तियों के मूल में व्यक्ति की स्वार्थ भावना अधिक काम करती है । इसलिए मनुष्य वैयक्तिक स्वार्थ का पोषण करने के लिए दूसरों को सताना. झूठे आरोप लगाना, झूठी साक्षी देना, व्यापार में अप्रामाणिक व्यवहार करना, संग्रह करना आदि-आदि प्रवृत्तियों में सक्रिय होने लगा । इस सक्रियता से नैतिक मानदण्ड टूट गये । फलतः वही व्यक्ति पूजा, प्रतिष्ठा पाने लगा जो इन कार्यों के द्वारा अर्थोपार्जन करके अपने समय की समस्त सुविधाओं का भोग करता
था ।
भगवान् महावीर के युग में भी नैतिक मूल्य स्थिर नहीं थे । नैतिकता के मूल्य ही जब विस्थापित हो गये तब अमानवीय व्यवहारों पर रोक भी कैसे लगाई जा सकती थी ? मूल्य की स्थापना की कसम - कस के समय एक ऐसी आचार संहिता की अपेक्षा थी, जो नैतिकता की हिलती हुई नींव को स्थिर कर सके ।
भगवान् महावीर इस स्थिति से अनजान नहीं थे। क्योंकि उनके पास अव्याबाध ज्ञान था । उन्होंने मुनि धर्म ( पाँच महाव्रतों) की प्ररूपणा करके जीवन - विकास के उत्कृष्ट पथ का संदर्शन किया । किन्तु हर व्यक्ति में उस पर चलने की क्षमता नहीं होती, इसलिए उन्होंने अणुव्रतों की व्यवस्था की है । स्थानांगसूत्र में उन अणुव्रतों का नामोल्लेख करते हुए लिखा गया है- पंचाणुवत्ता पन्नत्ता, तं जहा - थूलातो पाणाइवायातो वेरमणं, थूलातो मुसावाया तो वेरमणं, थूलातो अदिन्नादानात वेरमणं, सदार संतोसे, इच्छा परिमाणे ।
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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