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________________ और (2) सामाजिक धार्मिक तथा नैतिक रूढ़ियों से। इन दोनों बन्धनों से ग्रस्त मानव छटपटा रहा था। इन. बन्धनों के दुष्परिणामस्वरूप नैतिकता का हास हो गया और अनैतिकता के प्रसार को खुलकर फैलने का अवसर मिल गया। ईश्वरवाद तथा ईश्वरकर्तृत्ववाद के सिद्धान्त का लाभ उठाकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने अपनी विशिष्ट स्थिति बना ली। साथ ही ईश्वर को मानवीय भाग्य का नियंत्रक और नियामक माना जाने लगा। इससे मानव की स्वतन्त्रता का हास हुआ, नैतिकता में भी गिरावट आई। भगवान् ने मानव को स्वयं अपने भाग्य का निर्माता बताकर मानवता की प्रतिष्ठा तो की ही, साथ उसमें नैतिक साहस भी जगाया। - इसी प्रकार इस युग में स्नान (बाह्य अथवा जल स्नान) एक नैतिक कर्तव्य माना जाता था, इसे धार्मिकता का रुप भी प्रदान कर दिया गया था, जब कि बाह्य स्नान से शुद्धि मानना सिर्फ रुढिवादिता है। भगवान ने स्नान का नया आध्यात्मिक लक्षण३० देकर इस रुढिवादिता को तोडा। ब्राह्मणों को दान देना भी उस युग में गृहस्थ का नैतिक-धार्मिक कर्त्तव्य बना दिया गया था। इस विषय में भी भगवान ने नई नैतिक दृष्टि देकर दान से संयम को श्रेष्ठ बताया। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा कि प्रतिमास सहस्त्रों गायों का दान देने से संयम श्रेष्ठ है।३१ वस्तुत: भगवान महावीर दान के विरोधी नहीं है, अपितु उन्होंने तो मोक्ष के चार साधनो में दान, शील, तप और भाव में दान को प्रथम स्थान दिया, किन्तु उस युग में ब्राह्मणों को दान देना एक रुढि बन गई थी, इस रुढिग्रस्तता को ही भगवान ने तोडकर मानव की स्वतन्त्रता तथा नैतिकता की स्थापना की थी। भगवान के कथन का अनुमोदन धम्मपद 32 मे भी मिलता है और गीता के शांकर भाष्य३३ में भी। उपसंहार इस सम्पूर्ण विवेचन से सपष्ट है कि भगवान महावीर ने नीति के नये आधारभूत सिद्धान्त निर्धारित किये। संवर आदि ऐसे धटक है जिन पर अन्य विद्वानों की दृष्टि न जा सकी। उन्होंने अनाग्रह, अनेकांत, यतना, अप्रमाद, समता, विनय आदि नीति के विशिष्ट तत्व मानव को दिये। सामूहिकता को संगठन का आधार बताया और श्रमण एवं श्रावक को उसके पालन का संदेश दिया। सामान्यतया, सभी अन्य धर्मो ने धर्म तत्व को जानने के लिए मानव को बुद्धि-प्रयोग की आज्ञा नहीं दी, यही कहा कि जो धर्म-प्रवर्तको ने कहा है, हमारे शास्त्रों में लिखा है, उसी पर विश्वास कर लो। किन्तु भगवान महावीर मानव को अंधविश्वासी नहीं बनाना चाहते थे, अत: 'पन्ना समिक्खए धम्म' कहकर मानव को धर्मतत्व में जिज्ञासा और बुद्धि-प्रयोग को अवकाश देकर उसके नैतिक धरातल को ऊँचा उठाया। आत्महित के साथ-साथ लोकहित का भी उपदेश दिया। तत्कालीन एकांगी विचारधाराओं का सम्यक समन्वय किया, सामाजिक धार्मिक दृष्टि से रसातल में जाते हुए नैतिक मूल्यों की ठोस आधार पर प्रतिष्ठा की। इस प्रकार भगवान महावीर ने नीति के ऐसे दिशानिर्देशक सूत्र दिये जिनका स्थायी प्रभाव हुआ और समस्त नैतिक चिन्तन पर उनका प्रभाव आज भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। 30. उत्तराध्ययन सूत्र 12/46, 31. उत्तराध्ययन सूत्र 9/40, 32. धम्मपद 106 33. देखिए, गीता 4/26-27 पर शांकर भाष्य संसार में ऐसे भी पूरुष है जो आपत्ति के आंधी-तूफान का पान कर लेते हैं। 221 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211511
Book TitleBhagwan Mahavir ki Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherZ_Lekhendrashekharvijayji_Abhinandan_Granth_012037.pdf
Publication Year1990
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ethics
File Size935 KB
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