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"भगवान महावीर की जन-जीवन को देन"
कि
五月
अतीत के आलोक में भगवान महावीर के पांचव्रतों (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य) के सम्बल ने उस युग को इतना संवारा कि हिंसा को अहिंसा का दिशा निर्देश मिला, पाप को पुण्य के परखने की क्षमता मिली, और असत्य को सत्य के समझने की सीख मिली । अनेक आततायी तथा असामाजिक तत्व, दुष्कर्मों को त्याग कर सत्कर्मों की ओर उन्मुख हुए । भगवान महावीर के आदर्श और उपदेश सामाजिक कल्याण के लिए उस युग में जितने उपयोगी थे उससे कहीं अधिक आज उनकी आवश्यकता है । FER तथ्यतः आज के वैज्ञानिक विकास तथा भौतिकता के भटकाव में उलझी मानसिकता भले ही कृत्रिम साधनों की उपलब्धि से क्षणिक संतोष की अनुभूति करे किंतु रासायनिक अस्त्र शस्त्रों की दौड़ तथा स्वार्थ और वैभव विलास की बढ़ती भावना मनुष्य को कहाँ ले जायेगी यह सब सोचकर रोमांच हो जाता है। आज कल जो हिंसा की नई लहर चारों ओर फैल रही है कि निर्दोष लोगों को सरेआम मार दिया जाता है, यह निर्ममता की प्रवृत्ति अत्यधिक निन्दनीय है। अतः आज भगवान महावीर के आदर्श और उपदेश समस्त संसार के लिए वरदान स्वरूप हैं । अब केवल भारतीय समाज के लिए ही नहीं, वरन विश्व के समस्त जीवों के लिए भगवान महावीर के उपदेशों का प्रसार अति आवश्यक हो गया है ।
आज के हिंसा पूर्ण माहोल में जहाँ किसी का जीवन सुरक्षित नहीं है भगवान महावीर का यह उद्बोधन कितना उपयोगी सिद्ध हो सकता है जिसे आंकना आसान नहीं है, यथा
सव्वे पाणा पियाउया,
सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा ।
पियजीविणो जीविउकामा
(डॉ. शोभनाथ पाठक)
सव्वेसिं जोवियं पियं । ( आचा. सूत्र )
अर्थात् सभी प्राणियों को अपने अपने प्राण प्रिय हैं। सब सुख चाहते हैं, दुःख सहन करना कोई भी नहीं चाहता । सुखी जीवन जीने की सबकी अभिलाषा होती है, फिर किसी अन्य की हत्या करने या कष्ट पहुँचानें की ओर मनुष्य क्यों प्रवृत्त होता है ? क्या उसे किसी अन्य के पीड़ित करने में संकोच नहीं होता दया नहीं आती ? आखिर पाषाण हृदय न पसीजने का कारण क्या है ? यह समाज के लिए एक चुनौती है।
भगवान महावीर ने अहिंसा को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर सभी प्राणियों के प्राण बचाने का आव्हान करते हुए लोगों को उपदेश दिये कि -
तत्थिमं पढमं ठार्म, महावीरेण देखिये ।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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अहिंसा निउणा दिट्ठा - सव्वभूएस संजमो । जावन्ति सोए पाणा तस्य अदुव थावरा,
जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घावए । (दश वै. सूत्र )
प्रत्येक प्राणी को सबसे अधिक प्रिय उसका प्राण होता है उसे गंवाना वह किसी कीमत पर पसंद नहीं करता फिर ऐसे अनमोल प्राणों को किसी को लूटने का क्या अधिकार है ? तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी की रक्षा करना, मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य है फिर भी वह उससे विमुख हो जाता है, आखिर क्यों ? इस प्रकार विश्वकल्याण के लिए भगवान महावीर का दिया हुआ "अहिंसा" महामंत्र अत्यधिक उपयोगी है । इसके प्रचार-प्रसार की आज नितान्त आवश्यकता है ।
दूर संचार के साधनों से जहाँ आज हमें अनेक सुविधाएँ प्राप्त है वहीं अनेक असुविधाएँ भी हैं। आपसी आरोप प्रत्यारोपों से सामाजिक विषमता बढ़ती है कि आज एक देश दूसरे देश, और, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिपर झूठे आरोप लगाकर किसी के जीवन में विष घोलता है वास्तव में इस प्रवृत्ति को बदलने के लिए भगवान महावीर के "सत्य" सिद्धान्त का सहारा लेना समाज के लिए अत्यधिक उपयोगी है। महावीर ने कहा है कि -
मुसावाओ यह लोगम्मि, सव्वसाहूहि गरिहिओ ।
अविस्सासौ य मूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए । (दश. सू.)
संसार के सभी महापुरुषों ने असत्यवादन की घोर निंदा की है, और बड़े से बड़ा विनाश भी असत्य से हुआ है फिर भी मनुष्य असत्य बोलता है । स्वयं को व समाज को दूषित करता है । कितना आश्चर्य है ? इसलिए महावीर ने हमेशा सत्य ही बोलने की सीख समाज को दी। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि
"तं सच्चं भयवं" सत्य ही भगवान है ।
तात्पर्य यह है कि सत्य बोलना, ईश्वर की प्राप्ति है हमारे राष्ट्र का प्रतीक भी है "सत्यमेव जयते" अतः सत्य का सहारा ही समाज के लिए श्रेयस्कर है ।
'अस्तेय' का भी महावीर के उपदेशों में प्रमुख स्थान है । सामाजिक विषमता में एक दूसरे
की संपत्ति या साधनों का अपहरण,
चुराना, या दीनता, विकास की प्रक्रिया में बाधक है इसलिए भगवान महावीर ने कहा है कि -
चित्तमंतयचित्तं का अप्पं वा
pe के
जइ वा वहं
दंतसोहणमित्तं वि उग्गहंसि अजाइया ।
(९७)
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विचित्र गति है काल की जान सका नहीं कोय । जयन्तसेन निडर रहो, होनहार सो होय ||
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