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भगवान महावीर का समन्वयवाद और विश्व-कल्याण
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मानव जीवन का परम लक्ष्य है निर्वाण पाना । मनुष्य क्या करे कि उसे निर्वाण प्राप्त हो आत्म स्वरूप का ज्ञान हो ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान महावीर ने दिया “आत्मा पर अनुशासन । आत्मा पर विजय पाने वाला मनजीत ही विश्वजीत होता है समस्त दुःखों से मुक्त होता है । दुःखों से मुक्ति के लिए, जीवन में सार्थक शांति के लिए, आत्म प्रशस्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए तथा विश्व कल्याण, दूसरे शब्दों में 'स्व' और 'पर' के कल्याण के लिए समन्वय भाव आवश्यक है। भगवान महावीर समन्वय की जीती जागती मशाल थे। हर क्षेत्र में समन्वय चाहे वह विभिन्न धर्मों में हो, चाहे आचरण में हो, चाहे व्यवहार में हो चाहे विचार में। उन्होने आंतरिक और बाह्य, व्यक्तिगत और सामाजिक प्रत्येक कोण से समन्वय का समीकरण किया तथा प्रत्येक समस्या का सम्यक् समाधान प्रस्तुत कर मानवता को कल्याण और शांति की राह दिखाई ।
(डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय ) 成
अन्तर्जगत में समन्वय क्रांति का शंखनाद कर भगवान महावीर स्वयं कामनाओं से लड़े, विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसा को पराजित किया, असत्य को पराभूत किया तथा जात्यभिमान, कर्माभिमान, आडम्बर, विषमता, लोभ, मोह आदि को पीछे धकेल कर निर्वाण के भागी बने, भगवत्ता के महान् पद पर प्रतिष्ठित हुए ।
'आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना उनमें कूट कर भरी थी। हर प्राणी सुख चाहता है और इस हेतु वह प्रयत्न भी करता हैं, पर अधिकांश जन दुःखी ही देखे जाते हैं वे दुःखी क्यों है ? उन्हें सुख क्यों नहीं मिलता, क्या सुखी बनने के लिए दूसरों को दुःखी बनाना आवश्यक है ? यदि नहीं तो सभी को सुखी बनाकर कैसे सुख पाया जा सकता है यह, उनके मन की व्यथा थी तथा सर्व कल्याण और स्व कल्याण के मार्ग को ढूंढना उनके जीवन का लक्ष्य इस प्रक्रिया में उन्हें १२ वर्ष उगे और जो पाया वह दिव्य से दिव्य था, गहन से गहन था पर स्फटिक की तरह केवल ज्ञान और ज्ञान था। जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा। केवल ज्ञान के उस अलौकिक प्रकाश ने विश्व की हर समस्या का समाधान प्रस्तुत किया ।
महावीर के आविर्भाव के समय की तत्कालीन व्यवस्था में जन्मना जाति का सिद्धान्त व्याप्त था अतः समाज में विषमता का बोल बाला था । सांप्रदायिकता का आवरण धर्म पर छा रहा था । एक ओर हिंसा का बोलबाला था तो दूसरी ओर वैभव, विलास और व्यभिचार का तांडव नृत्य ऐसे में महावीर का समता का सिद्धान्त - कोई ऊँचा नहीं कोई नीचा नहीं सभी बराबर का प्रतिपादन अभूतपूर्व क्रान्ति लाया । प्राणीमात्र का कल्याण ही उनका लक्ष्य था और यही उनका धर्म । उन्होंने मानसिक स्वतंत्रता और साहसिक आवश्यकता का महत्त्व समझाया तथा प्रत्येक क्षेत्र
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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में समन्वयवाद के जरिये समस्त प्राणियों को सुख, शांति समृद्धि व संतोष का संदेश दिया ।
सर्वधर्मसमन्वय
'वत्थु सभावो धम्मो' – वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है । जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का उष्णता, शक्कर का स्वभाव मीठापन, नमक का स्वभाव खारापन है उसी तरह आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय हैं - सदाचार-मय है सचित्त एवं आनंदमय है। प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव में रमण करे तो यही धर्म है और यही आत्मा का स्वाभाविक और निजी गुण भी । दूसरे शब्दों में आत्मा की मूल प्रवृत्तियों के अनुरूप चलना ही धर्म है ।
(५८)
धम्मो मंगल मुक्किट, अहिंसा संजमो तयो,
देवा वित्तं नर्मसंति, जस्स धन्मे सया मणो ॥ 万英 Fa (दशयैकालिक सूत्र)
अर्थात् जो उत्कृष्ट मंगलमय है, वही धर्म है दूसरे शब्दों में जो प्राणीमात्र के लिए सुख शांतिकारी है, मंगलकारी है वही धर्म है । अहिंसा, संयम व तप की आराधना से ही मानव मात्र का मंगल होता है तथा आत्मा का कल्याण होता है। ऐसे धर्म को धारण करने वाले को देवता भी नमस्कार करते हैं।
उन्होंने किसी धर्म विशेष का गुण गान नहीं किया। उनका तो बस एक ही लक्ष्य था प्राणीमात्र को सुखी देखना । जिस धर्म में सभी प्राणियों का मंगल निहित है वही सच्चा धर्म है।
"जाव दियाई कल्लाणाई, सग्गे य मगुअलोगेय । आव हदि ताण सव्वाणि मोक्खं च वर धम्मो ।'
(भगवती सूत्र )
अर्थात् स्वर्ग और मृत्युलोक में जितने भी कल्याण हैं उन सबका प्रदाता धर्म ही है। मनुष्य का कल्याण धर्म पालन में है - हाँ धर्म की परख आवश्यक है हिंसक, रूढ़िवादी व कृत्रिमता पूर्ण धर्म कल्याण कारक नहीं हो सकता। सर्वोच्च और सच्चा धर्म वही है जो सब प्राणियों के लिए मंगलकारी है।
भगवान महावीर के सर्व धर्म समन्वयवादी विचारों ने न सिर्फ तत्कालीन समाज को सन्मार्ग दिया वरन् आज जब संप्रदायों के झगड़े, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि धर्मानुयायियों के झगड़े संगठनों के पंथों और विचारों के झगड़े न सिर्फ भारत को वरन् सम्पूर्ण विश्व
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खोकर निज सम्मान को जयन्तसेन जगे नहीं, उस
करता कार्य कठोर । का अनुभव जोर ।। wwwwjainelibrary.org