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________________ स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ गुरु तथा रत्नाधिक मुनियों के आगमन पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, भक्ति एवं शुश्रुषा करना उपचार-विनय है। उपचार-विनय आचार-विनय की पीष्ठभूमि है। उत्तराध्ययन में इसका सुन्दर दिग्दर्शन मिलता है -- अभुटठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ'।। जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण आहुति और मन्त्रपदों से अभिषिक्त यज्ञाग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्त ज्ञान-सम्पन्न होते हुए भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा करे । २ ज्ञान और आचार की आराधना करने वाला मुनि आचार्य के आदेश का लंघन न करे। जिससे धर्मपदों की शिक्षा ग्रहण करे, उसके प्रति शिक्षार्थी मुनि विनय का प्रयोग करे। उसे बद्धांजलि तथा नतमस्तक हो वन्दन करे। वह मन, वाणी तथा काया से सदा उसका विनय करे। ३ शिष्य आचार्य की शय्या(बिछौना) से अपनी शय्या नीचे स्थान में करे। गति भी नीची रखे अर्थात आचार्य के आगे-आगे न चले, पीछे चले। चूर्णिकार लिखते हैं - शिष्य गुरु के अति समीप तथा अति दूर न चले। अति समीप चलने से रजकण उड़ते हैं। इससे गुरु की आशातना होती है। अति दूर चलने से प्रत्यनीकता का आभास होता है। आचार्य जहां खड़े हों, शिष्य उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे। चूर्णि के अनुसार नीचे स्थान में भी गुरु के आगे तथा बराबर खड़ा न रहे। अपना आसन भी गुरु के आसन से नीचा बिछाए। शिष्य प्रणत होकर गुरु-चरणों में वन्दन करे। यद्यपि आचार्य ऊपर आसन पर विद्यमान हैं और शिष्य नीचे खड़ा है फिर भी वह सीधा खड़ा-खड़ा वन्दन न करे, अपितु चरण-स्पर्श हो सके उतना झुककर करे । सीधा खड़े रहकर वन्दन करने से उसका अक्खड़पन आभाजित होता है। वन्दना के लिए सीधा खड़ा-खड़ा हाथ न जोड़े, कुछ नीचे झुके। १. उत्तरज्झयणाणि ३०/३२ २. दसवेआलियं ६/१/११ ३. वही - ६/१/१२ ४. वही- ६/२/१७ 889063868 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211504
Book TitleMahavir ka Vyavaharik Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherZ_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf
Publication Year1998
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size704 KB
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