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भगवान महावीर का तत्त्ववाद | २७५
द्रव्यों का स्वतंत्र अस्तित्व है। कोई भी द्रव्य किसी का गुण या अवान्तर विभाग नहीं है। गति, स्थिति, अवगाह, चैतन्य तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श- ये विशिष्ट गुण हैं । इन्हीं के द्वारा उनकी स्वतंत्र सत्ता है । इस वर्गीकरण और अदृश्य,
भौतिक
न प्रमाण-मीमांसा है, न गुणों की स्वतंत्र सत्ता की स्वीकृति और न सृष्टि का क्रम । इसमें दृश्य और अभौतिक अस्तित्वों का प्रतिपादन है । इस दृष्टि से यह वर्गीकरण मौलिक और वास्तविक है ।
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वस्तु-मीमांसा और मूल्य-मीमांसा का वर्गीकरण एक साथ किया होता तो वह नैयायिक, वैशेषिक और सांख्य दर्शन जैसा मिला-जुला वर्गीकरण होता । उसकी वैज्ञानिकता समाप्त हो जाती । पंचास्तिकाय के कार्य के विषय में संक्षिप्त चर्चा हो चुकी है। फिर भी उस विषय में महावीर और गौतम का एक संवाद मैं प्रस्तुत करना चाहूँगा । गौतम ने पूछा – मंते ! धर्मास्तिकाय से क्या होता है ? भगवान ने कहा- गौतम ! आदमी चल रहा है, हवा चल रही है, श्वास चल रहा है, वाणी चल रही है, आँखें पलक झपका रही हैं । यह सब धर्मास्तिकाय के सहारे से हो रहा है । यदि वह न हो तो निमेष और उन्मेष नहीं हो सकता । यदि वह न हो तो आदमी बोल नहीं सकता । यदि वह न हो तो आदमी सोच नहीं सकता। यदि वह नहीं होता तो सब कुछ पुतली की तरह स्थिर और स्पन्दनहीन होता ।
उपनिषद् के ऋषियों ने कहा कि यदि आकाश नहीं होता तो आनन्द नहीं होता । आनन्द कहाँ होता है ? आकाश है, तभी तो आनन्द है । ठीक इसी भाषा में भगवान महावीर ने कहा — धर्मास्तिकाय नहीं होता तो स्पन्दन भी नहीं होता। तुम पूछ रहे हो और में उत्तर दे रहा है, यह इसीलिए हो रहा है कि धर्मास्तिकाय है। यदि वह नहीं होता तो न तुम पूछ सकते और न मैं उत्तर दे सकता। हम मिलते भी नहीं । जो जहाँ है, वह वहीं होता । हमारा मिलन, वाणी का मिलन, शरीर का मिलन, वस्तु का मिलन जो हो रहा है, एक वस्तु एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा रही है, यह सब उसी गति तत्त्व के माध्यम से हो रहा है। वह अपना सहारा इतने उदासीन भाव से दे रहा है कि किसी को कोई शिकायत नहीं है । उसमें चेतना नहीं है, इसलिए न उपकार का अहंकार है और न कोई पक्षपात । वह स्वाभाविक ढंग से अपना कार्य कर रहा है ।
गौतम ने पूछा- भंते ! अधर्मास्तिकाय से होता है ?
भगवान ने कहा- तुम अभी ध्यान कर आए हो। उसमें तुम्हारा मन कहाँ था ?
भंते! कहीं नहीं । मैंने मन को निरुद्ध कर दिया था ।
भगवान बोले- यह निरोध, एकाग्रता, स्थिरता अधर्मास्तिकाय के सहारे होता है । यदि वह नहीं होता तो न मन एकाग्र होता, न मौन होता और न तुम आँख मूंदकर बैठ सकते । तुम चलते ही रहते । इस अनन्त आकाश में अविराम चलते रहते। जिस बिन्दु से चले उस पर फिर कभी नहीं पहुँच पाते । अनन्त आकाश में खो जाते । किन्तु गति के प्रतिकूल हमारी स्थिति है, इसीलिए हम कहीं टिके हुए हैं। इस कार्य में अधर्मास्तिकाय वैसे ही उदासीन भाव से हमारा सहयोग कर रहा है, जैसे गति में धर्मास्तिकाय ।
गौतम ने पूछा- आकाश में क्या होता है ?
भगवान ने कहा - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय -- इन सबका अस्तित्व आकाश के अस्तित्व पर निर्भर है। वह उन सबको आधार दे रहा है। जिस आकाश खण्ड में धर्मास्तिकाय है, उसी में अधर्मास्तिकाय है, उसी में जीवास्तिकाय और उसी में पुद्गलास्तिकाय है। आकाश की यह अवकाश देने की क्षमता नहीं होती तो ये एक साथ नहीं होते । उसके अभाव में इन सबका सद्भाव नही होता ।
गौतम ने पूछा- भंते ! जीव क्या करता है ?
भगवान ने कहा- वह ज्ञान करता है, अनुभव करता है। उसके पास इन्द्रियाँ हैं । वह देखता है, सुनता है, सूंघता है, चखता है और छूता है। सामने हरा रंग है। आँख ने देखा, उसका काम हो गया। पत्तियों की खनखनाहट हो रही है। कान ने सुना, उसका काम समाप्त। हवा के साथ आने वाली सुगंध का नाक ने अनुभव किया, उसका काम समाप्त । जीभ ने फल का रस चखा और उसका काम पूरा हो गया। हाथ ने तने को छुआ और उसका काम पूरा हो गया । किन्तु कुल मिलाकर वह क्या है ? यह न आँख जानती है और न कान। इनके बिखरे हुए अनुभवों
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S.Bhastit